तिलस्म कमलेश भारतीय रात के गहरे सन्नाटे में किसी वीरान फैक्ट्री से युवती के चीरहरण की आवाज सुनी नहीं गयी पर दूसरी सुबह सभी अखबार इस आवाज को हर घर का दरवाजा पीट पीट कर बता रहे थे । दोपहर तक युवती मीडिया के कैमरों की फ्लैश में पुलिस स्टेशन में थी । किसी बड़े नेता के निकट संबंधी का नाम भी उछल कर सामने आ रहा था । युवती विदेश से आई थी और शाम किसी बड़े रेस्तरां में कॉफी की चुस्कियां ले रही थी । इतने में नेता जी के ये करीबी रेस्तरां में पहुंच गये । अचानक पुराने रजवाड़ों की तरह युवती की खूबसूरती भा गयी और फिर वहीं से उसे बातों में फंसा कर ले उड़े । बाद की कहानी वही सुनसान रात और वीरान फैक्ट्री । देश की छवि धूमिल होने की दुहाई और अतिथि देवो भवः की भावना का शोर । ऊपर से विदेशी दूतावास । दबाब में नेता जी को मोह छोड़ कर अपने संबंधियों को समर्पण करवाना ही पड़ा । फिर भी लोग यह मान कर चल रहे थे कि नेता जी के संबंधियों को कुछ नहीं होगा । कभी कुछ बिगड़ा है इन शहजादों का ? केस तो चलते रहते हैं । अरे ये ऐसा नहीं करेंगे और इस उम्र में नहीं करेंगे तो कौन करेगा ? इनका कुछ नहीं होता और लोग भी जल्दी भूल जाते हैं । क्या यही तिलस्म था या है ? ये लोग तो बाद में मजे में राजनीति में भी प्रवेश कर जाते हैं । थू थू सहनी पड़ी पर युवती विदेशी थी और उसका समय और वीजा ख़त्म हो रहा था । बेशक वह एक दो बार केस लड़ने , पैरवी करने आई लेकिन कब तक ? बस । यही तिलस्म था कि नेता जी के संबंधी बाइज्जत बरी हो गये । स्त्री वह जार जार रोये जा रही थी और फोन पर ही अपने पति से झगड रही थी । बार बार एक ही बात पर अडी हुई थी कि आज मैं घर नहीं आऊंगी । बहुत हो गया । संभालो अपने बच्चे । मुझे कुछ नहीं चाहिए । पति दूसरी तरफ से मनाने की कोशिश में लगा था और वह आंसुओं में डूबी कह रही थो कि आखिर मैं कलाकार हूं तो बुराई कहां है ? क्या मैं घर का काम नहीं करती ? क्या मैं आदर्श बहू नहीं ? यदि कला का दामन छोड दूं और मन मार कर रोटियां थापती और बच्चे पालती रहूं तभी आप बाप बेटा खुश होंगे ? नहीं । मुझे अपनी खुशी भी चाहिए । मेरो कला मर रही है । आज मेरा इंतजार मत करना । मैं नौकरी के बाद सीधे मायके जाऊंगी । मेरे पीछे मत आना । इसी तरह लगातार रोते बिसूरती वह ऑफिस का टाइम खत्म होते ही सचमुच अपने मायके चली गयी । मां बाप ने हैरानी जताई । अजीब सी नजरों से देखा । कैसे आई ? कोई जरूरी काम आ पडा ? कोई स्वागत् नहीं । कहीं बेटी के घर आने की कोई खुशी नहीं । चिंता, बस चिंता । क्या करेगो यहां बैठ कर ? मुहल्लेवाले क्या कहेंगे ? हम कैसे मुंह दिखायेंगे ? शाम को पति मनाने और लिवाने आ गया । कहां है मेरा घर ? यह सोचती अपने रोते बच्चों के लिए घर लौट गयी । पर कौन सा घर ? किसका घर ? कहां खो गयी कला ? किसी घर में नहीं ? सात ताले और चाबी -अरी लडक़ी कहां हो ?-सात तालों में बंद ।-हैं ? कौन से ताले ?-पहले ताला -मां की कोख पर । मुश्किल से तोड़ कर जीवन पाया ।-दूसरा ?-भाई के बीच प्यार का ताला । लड़का लाडला और लड़की जैसे कोई मजबूरी मां बाप की । परिवार की ।-तीसरा ताला ?-शिक्षा के द्वारों पर ताले मेरे लिए ।-आगे ?-मेरे रंगीन , खूबसूरत कपड़ों पर भी ताले । यह नहीं पहनोगी । वह नहीं पहनोगी । घराने घर की लड़कियों की तरह रहा करो । ऐसे कपड़े पहनती हैं लड़कियां?-और आगे ?-समाज की निगाहों के पहरे । कैसी चलती है ? कहां जाती है ? क्यों ऐसा करती है ? क्यों वैसा करती है ?-और ?-गाय की तरह धकेल कर शादी । मेरी पसंद पर ताले ही ताले । चुपचाप जहां कहा वहां शादी कर ले । और हमारा पीछा छोड़ । और?-पत्नी बन कर भी ताले ही ताले । यह नहीं करोगी । वह नहीं करोगी । मेरे पंखों और सपनों पर ताले । कोई उड़ान नहीं भर सकती । पाबंदी ही पाबंदी ।-अब हो कहां ?-सात तालों में बंद ।-ये ताले लगाये किसने ?-बताया तो । जिसका भी बस चला उसने लगा दिये । -खोलेगा कौन ?-मैं ही खोलूंगी । और कौन ? Post navigation मीडिया में हिंदी का बढ़ता वर्चस्व मूसेवाला, पंजाबी गीत और संदेश