भगवान या धार्मिक प्रतीकों पर फूहड़ बातें लिख कर आप समाज में कैसे जागरूकता या बदलाव लायेंगे !

परपीड़ा अफीम की लत लग चुकी ये नशा उतरते उतरते इनका और इनकी अगली दो जेनेरेशन का भविष्य सुनिश्चित रूप से बर्बाद हो चुका होगा
सौ साल से नहीं पूजे गए राष्ट्रलिंगेश्वर महादेव

अशोक कुमार कौशिक

 भक्त इसलिए खुश नहीं हैं की उन्हें नए नए मंदिर , शिवलिंग और धार्मिक प्रतीक वापिस मिल रहें हैं। वो खुश इसलिए हैं की उनकी साम्प्रदायिक कुंठा के स्खलन को ये गैंग रोज रोज नए मुद्दे दे रहा है। हिन्दू लोगों को कभी इस बात की ख़ुरक नहीं हुई की उन्हें मंदिर नहीं मिला। हिन्दू मानसिकता हमेशा ये सुविधा देती रही की कहीं भी किसी भी प्रतीक को आराध्य मानकर पूजा शुरू कर दो। 

ये तो समस्या इस वर्तमान जेनेरेशन की हैं जिसे पिछले तीस सालों में ऐसा प्रोग्राम कर दिया गया है की इन्हे अब इस पर पीड़ा अफीम की लत लग चुकी है और ये नशा उतरते उतरते इनका और इनकी अगली दो जेनेरेशन का भविष्य सुनिश्चित रूप से बर्बाद हो चुका होगा।

शिवलिंग पर फूहड़ बातें लिखना और उसका उपहास करना विद्वता या प्रगतिशीलता नहीं है। अपने कुछ भ्रम कभी-कभी विद्वानों को भी दूर कर लेने चाहिए।

आपकी आस्था नहीं है तो मत मानिए, लेकिन आप यह तो मानेंगे कि उसमें करोड़ों लोगों की आस्था है? तो क्या उसका कुछ मतलब नहीं है आपके लिए? भगवान या धार्मिक प्रतीकों पर फूहड़ बातें लिख कर आप समाज में कैसे जागरूकता या बदलाव ले आएँगे? ऐसी कोई पद्धति है क्या?

मैंने अब तक के जीवन में जितना देखा-जाना है उस हिसाब से कहूँ तो नास्तिकता कोई उपलब्धि या प्रगतिशीलता का मानक नहीं है। ठीक उसी तरह आस्तिकता भी नहीं है। निकृष्ट, धूर्त्त, और अपराधी किस्म के लोग दोनों तरफ निकल आएँगे। इसलिए नास्तिक होने मात्र से कोई क्रांतिकारी नहीं हो जाता, न आप और न कोई और…

दूसरी बात, जैसे धर्म का कारोबार चलता रहता है उसी तरह क्रांति का भी धंधा चलता रहता है। इसी के बरक्स अच्छे लोग आस्तिकों में भी मिल जाएंगे और नास्तिकों में भी। मेरा यह कहना है कि नास्तिकता का मतलब दूसरे की आस्था का उपहास करना नहीं हो सकता। चाहे उसका संबंध किसी भी धर्म से हो। 

मैं यह नहीं कह रहा कि किसी भी धर्म की तर्कसंगत आलोचना नहीं होनी चाहिए। वह तो ज़रूर हो और ज़्यादा से ज़्यादा हो। मगर विद्वानो, आलोचना और उपहास में बहुत अंतर होता है और उस अंतर को समझते हुए भी आप क्रांतिकारी दिखने पर आमादा हो जाते हैं। बस इतनी-सी बात है।

शिव लिंग!
बिना देवी के अरघे (योनि) के संभव नहीं शिव लिंग।

1.शिव लिंग जिस में स्थापित होता है वह अरघा सती या देवी या प्रकृति की योनि होती है। उसका आकार सम्पूर्ण गोल संभव ही नहीं। जैसा ज्ञानवापी में दिखाया जा रहा है। अरघा प्रकृति और लिंग पुरुष का रूपक होता है। 
2. पौराणिक कथाओं में जब पहली बार शिव लिंग दिखा तो पृथ्वी से आकाश तक अछोर था। किंतु पूजा वाले इन शिव लिंगों की विकास कथा में बड़े पेच हैं। कुछ कथाओं में शिव ने अपना लिंग नोच कर फेंक दिया और ऋषि पत्नियां उसकी पूजा करने लगीं।
3. अभी जो पूजित शिव लिंग हैं, उनको अरघे में ही स्थापित करना होगा। केवल शिव नहीं देवी की भी सहभागिता है, लिंग को धारण करने में। 
4. ज्ञान वापी के कथित लिंग पर चढ़ाया हुआ निर्माल्य कैसे बाहर जाएगा, जल या द्रव्य बाहर कैसे जायेगा उसका कोई निकास प्रबंध तथाकथित लिंग में नहीं है। इसलिए शिवलिंग नहीं हो सकता। 
5. अरघा और स्थापित लिंग का अनुपात सदैव उचित रखा जाता है। यहां घेरा कूप नुमा है और स्थापित लिंग सूक्ष्म है, दुर्बल और कम है। इससे भी यह साफ है कि यह शिवलिंग नहीं। 
6. शिवलिंग वे हैं जो काशी की गलियों के छोटे मंदिरों से उखाड़ कर फेंक दिए गए। यह कुल तीन साल में हुआ है। ज्ञानवापी के तथा कथित शिव लिंग और काशी के मंदिरों से उखाड़ कर फेंके गए शिव लिंगों के आकार प्रकार का मिलान कर लें। असली और कथित का अंतर दिख जाएगा।

 सौ साल से नहीं पूजे गए राष्ट्रलिंगेश्वर महादेव

दिल्ली में रायसीना की पहाड़ी पर स्थित राष्ट्रलिंगेश्वर को 17 मई 1922 को अंग्रेज आर्किटेक्ट सर एडविन लुुटियन्स ने सुराख करके फौव्वारे में बदल दिया था।

आज इस शिवलिंग को बिना पूजा-अर्चना के ठीक सौ साल हो गए हैं। इसके पार्श्व में बने भगवान शिव के आदि निवास को अंग्रेजों ने वायसराय हाउस नाम देकर वायसराय का अधिकारिक निवास बना दिया।

स्वतंत्र भारत में  इसी राष्ट्रलिंगेश्वर महादेव के नाम पर बने इस भवन का नाम राष्ट्रपति भवन किया गया और यहाँ भारत के राष्ट्रपति रहने लगे। किन्तु राष्ट्रलिंगेश्वर महादेव  की पूजा अर्चना आज तक शुरु नहीं हो पाई है। पगलाते देश का हकलाता समाज

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