उमेश जोशी

पिछले सप्ताह चर्चा बहुत रही कि हरियाणा प्रदेश काँग्रेस अध्यक्ष बदला जाएगा और सांसद दीपेन्द्र हुड्डा को कमान सौंपी जाएगी। इस चर्चा का कोई आधार नजर नहीं आया, ना ही मीडिया ने कोई ऐसा तर्क दिया जिससे इस खबर पर भरोसा किया जा सके।  

 दीपेन्द्र हुड्डा को कमान सौंपने का अर्थ है कि वरिष्ठ नेता कुमारी सेलजा से पद वापस लेना। कद्दावर नेता कुमारी सेलजा के साथ आलाकमान ऐसा अन्याय आखिर क्यों करेगा! हरियाणा काँग्रेस की बागडोर सेलजा से वापस लेने का कोई आधार तो होना चाहिए। जब पार्टी सही तरीके से चल रही है और कुमारी सेलजा ने अभी तक ऐसी कोई गलती भी नहीं की है जिससे पार्टी को कोई नुकसान हुआ हो, पार्टी अध्यक्ष पद से छेड़छाड़ करने का कोई औचित्य नहीं है। इन स्थितियों में आलाकमान पार्टी को बेवजह संकट में डालने की गलती नहीं करेगा।

इस सच्चाई से आलाकमान भी बखूबी वाकिफ़ है कि हरियाणा काँग्रेस में जितने गुट हैं उतने किसी राज्य में नहीं है इसलिए हरियाणा में सर्वमान्य अध्यक्ष नियुक्त करना लगभग नामुमकिन है। इस समय भूपेंद्र हुड्डा गुट के अलावा कोई गुट कुमारी सेलजा की कार्यशैली से असंतुष्ट नहीं है। सभी गुटों ने सेलजा को अध्यक्ष के रूप में स्वीकार कर लिया है।

 कुमारी सेलजा को अध्यक्ष नियुक्त करने के पीछे गणित यह था कि एससी वर्ग के अशोक तंवर को हटा कर उसी वर्ग के नेता को यह जिम्मेदारी दी जाए। 

अशोक तंवर को हटाना आलाकमान की मजबूरी हो गई थी। भूपेंद्र हुड्डा और उनके गुट के लोग अशोक तंवर को नापसंद करते थे। हुड्डा और तंवर के बीच बढ़ते तनाव के कारण पार्टी की साख को नुकसान हो रहा था इसलिए तंवर को हटाना जरूरी हो गया था। तंवर के स्थान पर कुमारी सेलजा को नियुक्त नहीं किया जाता तो खास वर्ग में नाराजगी होती।

अब पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र हुड्डा कुमारी सेलजा से भी असंतुष्ट हैं। भूपेंद्र हुड्डा जी-23 के भी सदस्य हैं। आलाकमान से अपनी नाराजगी भी जाहिर करते रहते हैं। जानकारों का कहना है कि हुड्डा दबाव की राजनीति कर रहे हैं। अपना असंतोष जाहिर कर अपने बेटे दीपेन्द्र हुड्डा को प्रदेश काँग्रेस का अध्यक्ष पद दिलवाना चाहते हैं। वे जानते हैं कि दीपेन्द्र के नेतृत्व में काँग्रेस चुनाव जीतती है तो उसका मुख्यमंत्री बनने का दावा पक्का हो जाएगा। 

 दो चुनाव लगातार हार चुकी काँग्रेस को ऐसा लगता है कि तीसरी बार बीजेपी एंटी इनकंबेंसी के कारण स्वतः चुनाव हार जाएगी और मतदाताओं के पास बीजेपी का विकल्प काँग्रेस ही है। हालांकि अब मैदान में पूरी ताकत के साथ आम आदमी पार्टी भी आ गई है लेकिन फिलहाल वह उस स्थिति में नहीं दिखाई दे रही है कि सरकार बना सके। हरियाणा में पंजाब वाला छींका नहीं है जो किसी के भाग्य से टूट जाए। हरियाणा में आज भी बीजेपी का विकल्प काँग्रेस ही है और भूपेंद्र हुड्डा चाहते हैं कि उनके बेटे दीपेन्द्र की वो हैसियत बन जाए कि आलाकमान को उनमें मुख्यमंत्री नजर आए।   

दीपेन्द्र हुड्डा को प्रदेश इकाई की कमान सौंपने से एससी वर्ग में तो नाराजगी होगी ही, कुछ गुटों में भी असंतोष बढ़ जाएगा। दीपेन्द्र हुड्डा सर्व स्वीकार्य नेता नहीं हैं। उधर, भूपेंद्र हुड्डा को यह डर सता रहा है कि उनकी मेहनत की बदौलत पार्टी जीत हासिल करेगी और उसका फल कोई और खाएगा। 

यह भी सच है कि 25-30 विधान सभा सीटों पर भूपेंद्र हुड्डा का प्रभाव है। इन सीटों पर हुड्डा के कारण ही पार्टी को विजय मिलती है। जिस विधान सभा में 46 सदस्यों पर सरकार बनती है वहाँ 25-30 सीटें मायने रखती हैं। हुड्डा चाहते हैं कि उनकी मेहनत का फल उनके बेटे दीपेन्द्र हुड्डा को मिले। इसी वजह से भूपेंद्र हुड्डा ने आलाकमान पर अध्यक्ष पद बेटे को दिलाने के लिए दबाव बनाया होगा। मीडिया की खबरों का शायद यही आधार रहा होगा। 

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