डॉ मीरा सहायक प्राध्यापिका

14वीं सदी के समय को हिन्दी साहित्यिक जगत में मध्यकाल और भक्तिकाल कहा गया है। इस काल में साधु-सन्तों,ऋषि-मुनियों,योगियों-महर्षियों आदि महामानवों ने जन्म लिया और इन महात्माओं ने समाज में फैली कुरीतियों एवं बुराइयों के खिलाफ न केवल बिगुल बजाया बल्कि समाज को टूटने से भी बचाया।

 संत शिरोमणि गुरु रविदास जी ने जो किया वह अद्भूत, अकल्पनीय,अतुल्नीय व बेमिसाल रहा। उन्होंने अपने अलौकिक व बौद्धिक ज्ञान से समाज को अज्ञान,अधर्म, पाखंड एवं अंधविश्वास के अनंत अंधकार से निकालकर एक नई आभा और दिशा का दर्शन करवाए। 

उनका जीवन अद्भुत एवं दिव्य प्रेरक प्रसंगों से भरा हुआ है, जो मनुष्यों को सच्चा जीवन-मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित करता है। रविदास जी ने उस युग में हो रहे मनुष्य के प्रति भेदभाव का खंडन, ऊंच-नीच की भावना को समाप्त करने,धर्म के नाम पर अत्याचार और हिंसा को मिटाना चाहा तथा ऊंच नीच के भेद को खत्म कर मानवता की रक्षा की। 

संत रविदास बचपन से ही परोपकारी प्रवृति के थे। उनका पैतृक व्यवसाय चमड़े की जूतियां बनाना था लेकिन कभी भी उन्होंने अपने काम यानी व्यवसाय को  तुच्छ नहीं समझा। संत रविदास अपने काम के प्रति हमेशा समर्पित रहते थे। वे ऊपरी दिखावे में विश्वास नहीं करते थे। उनके ब्रह्म ज्ञान ने लोगों को बहुत प्रभावित किया, उन्होंने बताया कि वेद, कुरान,पुराण ये सब एक ही प्रभु यानी दिव्य शक्ति का गुणगान करते हैं। रविदास जी विश्व के श्रेष्ठ संतों में से एक थे जिन्हें संत शिरोमणि गुरु रविदास से नवाजा गया। संत रविदास के लेखन तथा दोहों के अनुवाद विभिन्न भाषाओं में पाए जाते हैं। 

महान व्यक्तित्व के धनी संत शिरोमणि गुरु रविदास जी के वचनों से हमें हमेशा प्रेरणा मिलती रहेगी।

संत रविदास ने जाति-पाति और वर्ण व्यवस्था को व्यर्थ बताते हुए कहा कि व्यक्ति जन्म के कारण छोटा या बड़ा नहीं होता है उसके द्वारा किए गये कर्मो से ही वह ऊंचा नीचा, छोटा बड़ा साबित होता है।

 रैदास जन्म के कारणों, होत न कोई नीच। 
नर को नीच करि डारि है,ओहे कर्म की कीच।।
 दू ऐसा चाहू राज मैं, जहां मिलई सबन के अन्न। 
छोट-बड़ेन सब सम बसे,रविदास रहे प्रसंन।।

रविदास जी की  इस सोच को आत्मसात बनाने के लिए लाखों-करोड़ों उनके अनुयायी आज भी प्रयासरत है। ऐसे संत रविदास जी की जयंती, बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। इस बार 16 फरवरी को उनकी 645वीं जयंती है। उन्होंने सत्संग द्वारा अपने विचारों और शिक्षाओं को लोगो तक पहुंचाया। उन्होंने अपने ज्ञान तथा उच्च आदर्शों को संस्कारों के साथ समाज को लाभान्वित किया। 

ईश्वर के प्रति प्रेम को व्यक्त करते हुए गुरु रविदास जी के यह दोहे – 
प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। 
जाकी अंग अंग वास समानी।। 
प्रभुजी तुम धनबन हम मोरा। 
जैसे चितवत चन्द्र चकोरा।। 
प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। 
जाकी जोति बरै दिन राती।। 
प्रभुजी तुम मोती हम धागा। 
जैसे सोनहि मिलत सुहागा।। 
प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा। 
ऐसी भक्ति करै रैदासा।।

संत रविदास कहते थे कि राम, कृष्ण, राघव ये सभी एक ही ईश्वर के नाम हैं। रविदास ने भारतीय समाज की जाति व्यवस्था पर अत्यंत दुःख प्रकट किया। 

देखा जाय तो रविदास जी ने भक्ति गीतों एवं दोहों के  माध्यम से भारतीय समाज में समानता एवं प्रेम भाव बढ़ाने का भरपूर प्रयास किया । उन्होंने समाज में सौहार्द एवं सहिष्णुता को बढ़ावा देने का अथक प्रयास किया। उनका विचार था कि ब्रह्म ज्ञान के लिए तीर्थ यात्राएं जरूरी नहीं है। 

का मथुरा,का द्वारिका, का काशी-हरिद्वार। 
रैदास खोजा दिल आपना,तह मिलिया दिलदार‘।।जातपात में पात है,ज्यों केलन के पात ।
रविदास मनुख न जुट सके,जब लग जात न पात।।
 वे मानते थे कि जाति भेदभाव के अंत से ही मानवता का कल्याण संभव है। 
जात पांत के फेर में, उलझी रहयो सब लोग। 
मानुषता को खात हुई,रविदास जाति कर लोग।।

 रविदास ने घमंड व द्वेष का त्याग कर अपना सर्वस्व  परमात्मा की शरण में समर्पित किया। उन्होंने बताया कि मानव जीवन बहुत ही दुर्लभ है और यह एक हीरे की तरह है,परन्तु यदि उसको केवल भौतिक सुखों का उपभोग करने में लगाया जाए, तो ऐसा करने का मतलब जीवन को नष्ट करना ही है। रविदास जी ने बताया कि परमात्मा हम सबके अन्दर है, बाहरी वेशभूषा बनाना व्यर्थ और ऊपरी दिखावा मात्र है। ईश्वर के सच्चे भक्तों को बाह्य क्रियाओं से कोई वास्ता नहीं होता। जब ध्यान मग्न होकर मानव पूर्ण रूप से भगवान की शरण में जाता है तो उसे मंदिर मस्जिद और राम कृष्ण में कोई अंतर नहीं दिखता। रविदास के विचारों ने समस्त मानव जाति को जगाने का काम किया। उन्होनें कहा कि ईश्वर की भक्ति करने के लिए गेरूवा वस्त्र, चन्दन, हवन और अन्य भौतिक वस्तुओं की जरूरत नहीं है।

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