-कमलेश भारतीय
चंडीगढ़ नगर निगम चुनाव में एक बार फिर दलबदल से मेयर का पद भारतीय जनता पार्टी की सरबजीत कौर को मिल गया । मिल गयी चंडीगढ़ की सरदारी भाजपा को ।।बहुत बहुत बधाई पर सवाल यह उठते है कि इस दलबदल की राजनीति को बदलेगा कौन ?
चुनाव में आप सबसे बड़ी पार्टी बन कर आई और चुनाव के एकदम बाद ही दलबदल की राजनीति शुरू हो गयी जब कांग्रेस के भाजपा में शामिल हो गयीं हरप्रीत कौर बाबला । भाजपा की सांसद किरण खेर को भी एक छोटी सी राजनीति में अपना बड़ा योगदान देने यानी वोट देने आना पड़ा । एक वोट रद्द हो जाने से भाजपा की वैतरणी पार हो गयी । लोगों ने इस रद्द वोट पर कहा कि जैसे कभी जी न्यूज वाले मीडिया मुगल सुभाष चंद्रा भी एक रद्द वोट से राज्यसभा में पहुंचने में सफल रहे थे वैसे ही सरबजीत कौर भी एक रद्द वोट से सौभाग्यशाली रहीं और मेयर बन गयीं । एक साल के लिए । दूसरे डिप्टी मेयर के पद तो सचमुच भाग्य से ही मिले ड्रा में ।
सवाल यह उठता है कि इस दलबदल की राजनीति पर कोई लगाम लगाने आगे आयेगा ? पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने दलबदल कानून बनाया जरूर लेकिन उसका तोड़ निकाला गया रद्द वोट और इस दलबदल की राजनीति को कोई रद्द न कर सका । कांग्रेस ने बहिष्कार किया क्योंकि पंजाब के विधानसभा चुनाव में कोई गलत संदेश न जाये । अकाली दल के एकमात्र पार्षद ने क्या किया यह पता नहीं चला ।
चंडीगढ़ नगर निगम चुनाव परिणाम को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पंजाब के लिए एक आइना बता कर खुश हो रहे थे तो आइना यह भी देख लें कि दलबदल की राजनीति से कैसे पार पाओगे ? जश्न मनाने चंडीगढ़ पहुंचे थे लेकिन मेयर पद भाजपा ले गयी और आप देखते रह गये । चुने हुए प्रतिनिधियों को एकदम संभालने का खेल चल निकला है । यह गुजरात के राज्यसभा चुनाव से शुरू हुआ था और फिर राजस्थान में बड़े पैमाने नर खेला गया जब मानेसर में विधायकों को मेहमान नहीं बंधक बना कर रखा गया । अब यह खेल छोटे स्तर पर भी पहुंच गया है । जिला पार्षद के अध्यक्ष जैसे छोटे चुनावों में भी पार्षदों को हिल स्टेशन की सैर करने की ऑफर मिल जाती है । सारे जन्म जन्म के पास धुल जाते हैं एक ही बार में । अगली बार कौन चुनाव लड़े एक ही चुनाव में सारे मज़े ले लो यही राजनीति है ।
अभी तो पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव का बिगुल बजा है , कोई कह रहा है कि शंखनाद हुआ है । नहीं यह शंखनाद दलबदल की राजनीति का हुआ है । आप के सांसद भगवत मान ने बिकने या पद के प्रलोभन से इंकार कर दिया लेकिन भाजपा ने अपनी रणनीति नहीं बदली । उत्तराखंड , गोवा , मणिपुर , कर्णाटक, असम और कहां कहां यह रणनीति नहीं चली ? इस दलबदल की राजनीति को कौन रद्द करेगा ? ये वोट रद्द नहीं हो रहे बल्कि आम आदमी का विश्वास डगमगाने लगा है । आज बाबला कांग्रेस से चुन कर आती हैं और कल दूसरी पार्टी का दामन थाम लेती हैं , क्यों ? इस राजनीति से आम आदमी को कितनी ठेस पहुंची है और इसीलिए वह मतदान के लिए समय खराब नहीं करता । मतदान का प्रतिशत इसीलिए कम होता जा रहा है । क्या फायदा मतदान का ? जिसे मतदान दिया उसने अपना मत ही बदल लिया ? क्यों ? पढ़े लिखे चुने हुए प्रतिनिधि का वोट कैसे रद्द हो जाता है ? क्या है इसके पीछे का रहस्य ? लोकतंत्र को बिकाऊ न बनाइए । इससे आमजन का भरोसा उठता जायेगा चुनावों से ।
-पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी ।