….लेखक अजीत सिंह हिसार के स्वतंत्र पत्रकार हैं । उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो व दूरदर्शन में कई वर्षों तक काम किया ।

अजीत सिंह

अजीत सिंह, 75 साल के मीडिया पर्सन

स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर जन्म लेना भी एक नेमत ही था।

आजादी मिलने से करीब दस महीने पहले पानीपत के पास एक गांव में एक किसान ने 75 वर्ष पूर्व अपने पहले बेटे के जन्म का जश्न मनाया था । इस पल के लिए उसने कई वर्षों तक इंतजार किया था। चार शादियां की थीं। उसकी तीन बालिकावधु पत्नियां किसी न किसी बीमारी के कारण चल बसी थीं। उससे लगभग 20 साल छोटी चौथी पत्नी ने एक पुत्र को जन्म देकर पति की इच्छा पूरी की थी।

गांव की जमीन के एक टुकड़े पर खूनी लड़ाई के बाद लंबे चले मुक़दमे का फैसला, उस दिन के आसपास आया जब बेटा पैदा हुआ था । किसान का विचार था कि जीत मुख्य रूप से कानूनी बारीकियों के बजाय बल के कारण मिली है और इसलिए उसने अपने बेटे का नाम बलजीत रखा इस उम्मीद में कि बेटा शारीरिक शक्ति से जीवन की हर लड़ाई जीतेगा ।

यह होना नहीं था। पुत्र ने शिक्षा की ताकत हासिल की। साथी बच्चे उसे जीता कह कर बुलाते थे, गांव के स्कूल टीचर ने रजिस्टर में उसका नाम अजीत सिंह लिख दिया । उसके लिए यह एक बड़ी नेमत ही थी कि वह गांव से पहला स्नातक बना। एक ऐसे गांव से जहां बिजली नहीं थी, घरों में पानी की सप्लाई नहीं थी। यहां तक कि पक्की गलियां व सड़कें भी नहीं थीं । सभी मकान कच्ची ईंटों के थे ।

दमा के मरीज पिता की उत्सुकता और गांव की परम्परा के चलते पुत्र की शादी उसके मैट्रिक पास करने से पहले ही कर दी गई । उसकी सुंदर बालिकवधु पत्नी उसके लिए सही संगिनी साबित हुई, यह भी एक बड़ी नेमत थी। उसने हर अच्छे बुरे वक्त में पति का साथ दिया।

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री लेकर उस युवा ने 1970 में संघ लोक सेवा आयोग की भारतीय सूचना सेवा की परीक्षा पास की। उसे पहली पोस्टिंग आकाशवाणी शिमला में उप-संपादक के रूप में मिली। हिल स्टेशन नियुक्ति भी एक नेमत थी। और इससे भी बड़ी नेमत थी कि उसने यहीं से रेडियो पत्रकारिता के गुर सीखने शुरू किए। गांव से उठे एक लड़के के लिए यह एक उत्कृष्ट प्रशिक्षण काल साबित हुआ ।
वहां से वह ऐतिहासिक घटनाओं का गवाह बनता गया। भारत – पाकिस्तान के बीच शिमला समझौते से लेकर अगले लगभग 35 वर्षों तक एक न्यूजमैन के रूप में वह हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में सत्ता के गलियारों में घूमता रहा ।

उसने कश्मीर में 1990 के दशक में आतंकवाद के दौरान हजरतबल दरगाह पर आतंकियों के कब्जे और कारगिल युद्ध की कवरेज की। श्रीनगर पोस्टिंग एक वास्तविक चुनौती थी, लेकिन यह एक नेमत ही साबित हुई जब 1990 में उसे सर्वश्रेष्ठ संवाददाता का आकाशवाणी पुरस्कार प्राप्त हुआ।

राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली में लगभग चार वर्षों के कार्यकाल में रेडियो पत्रकारिता को और गहराई से समझने का अवसर मिला।
अन्तिम पोस्टिंग हिसार में नए खुले दूरदर्शन केंद्र में हुई जहां उसे टेलीविजन पत्रकारिता को समझने का सुअवसर मिला। आकाशवाणी व दूरदर्शन की सर्विस के दौरान ही उसे प्रधान मंत्री व राष्ट्रपति की तीन तीन देशों की यात्राओं की कवरेज करने का अवसर मिला। हिसार से समाचार निदेशक के पद से 2006 में उसकी सेवानिवृति हुई। गांव के एक लड़के का डायरेक्टर पद तक पहुंचना क्या कम नेमत थी! उसका कोई सहपाठी ऐसा कुछ नहीं कर पाया था।

पिछले 15 वर्षों की सेवानिवृत्ति की अवधि भी एक भरपूर आशीर्वाद रही। वरिष्ठ नागरिकों के एक स्वैच्छिक संगठन के संस्थापक सदस्य के रूप में, वानप्रस्थ संस्था में रहते हुए उसके लेखन में काफी सुधार आया। वह दुविधा में था कि रिटायर होकर क्या करेगा? अब उसे कोई समाचार कार्यक्रमों में आमंत्रित नहीं करता था। प्रेस नोट नहीं मिलते थे।

उसने आम आदमी की खास बातें खोजकर इसकी रिपोर्टिंग शुरू की। आम आदमी को मीडिया प्राय रिपोर्ट नहीं करता। उसका मानना था कि हर किसी के पास बताने के लिए एक रोचक कहानी अवश्य होती है। उसने आम आदमी की कहानियों को सुना, अपनी खुद की शैली के साथ लिखा और स्थानीय मीडिया और दोस्तों के सामाजिक समूहों ने उसकी कहानियों को पसंद कर उसका उत्साहवर्धन किया।
यहां तक कि कोविड -19 काल भी उसके लेखन के लिए बेहतर साबित हुआ।

जी, मैं ही वह लड़का था जो इतनी सारी नेमतों का पात्र बना।

टेक्नोलॉजी से मुझे बहुत मदद मिली। स्मार्टफोन प्रौद्योगिकियों के संगम का उपकरण है । मैं इसे एक टाइपराइटर के रूप में उपयोग करता हूं और यहां तक कि यह मेरे स्टेनोग्राफर का भी काम करता है। मैं जो बोलता हूं, यह टाइप कर देता है। गूगल अलादीन के जिन्न की तरह जो भी हुक्म करो, वही जानकारी तुरंत हाज़िर कर देता है। एक तरह से यह मेरा आज्ञाकारी पुत्र सा है। और व्हाट्सएप सुंदर संदेशवाहक है जो दोस्तों से संदेश लाता भी है और संदेशों को ले भी जाता है । काश ये सुविधाएं सेवाकाल में उपलब्ध होती। आज ये भी बड़ी नेमत हैं।

कभी-कभी, मुझे लगता है कि पत्रकारिता पर्याप्त रूप से नेमतों की गिनती नहीं करती। यह आम तौर पर दुखों और संघर्षों में उलझी रहती है और इस तरह यह संकटों को कम करने की बजाय उन्हे बढ़ाती हुई प्रतीत होती है।

क्या मैं मेरी अच्छी कहानियों के माध्यम से एक हद तक अपने पिछले पापों का प्रायश्चित कर रहा हूं ? फैसला तो पाठक ही करेंगे पर आम आदमी की रिपोर्टिंग मुझे बड़ा आनंद देती है। और फिर वही बात कि हर आदमी के पास कई दिलचस्प कहानियां होती हैं ।

अपने 76वें जन्मदिन, 5 नवंबर पर एक बार फिर अपने सभी दोस्तों का आशीर्वाद चाहता हूं ।

ज़िन्दगी में संघर्ष और तनाव भी आए पर समय के साथ सब पिघल गए। उनकी गिनती क्यों की जाए जब कुदरत की बेशुमार नेमतें हैं? मैं अपनी नेमतें गिनता हूं, अपने दुखों को नहीं । मेरे विचार में जीने का यही सही तरीका है।

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