निष्ठाएँ अगर भेदभावपूर्ण हैं या उचित-अनुचित से परे अपनों के अंध-समर्थन की हद तक है, तो यह एक तरह से सामाजिक अपराध है।
सत्ता की निरंकुशता और उनके भ्रष्टाचार पर बोला ही जाना चाहिए, फिर चाहे वह कांग्रेस हो, भाजपा या कोई अन्य दल। 

अशोक कुमार कौशिक 

2022 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविद का कार्यकाल पूरा हो जाएगा । तब तक उत्तर प्रदेश के चुनाव भी हो चुके होंगे । देश में जिस तरह के हालात हैं , उसको देखते हुए मुझे लगता है कि मोदी देश के अगले राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं । हो सकता है राष्ट्रपति बनने से पहले वो राष्ट्रपति के पद को थोड़ी और मज़बूती दे दे या राष्ट्रपति का दख़ल सरकार में बढ़ाने का कोई बिल पास कर दे । 

फ़िलहाल जो मोदी को बदलने की अटकलें चल रही है , वो बस मूर्ख बनाने के लिए है जिससे संघ अपना चहरा बचा सके क्यूँकि कोरोना में जितनी बदनामी सरकार की हुई है , उतनी ही बदनामी संघ की भी हुई है । संघ प्रॉपगैंडा में माहिर है और यह सब अटकलें उसी प्रॉपगैंडा का हिस्सा है । 

उत्तर प्रदेश में अगर योगी फिर से चुनाव जीत गए तो उन्हें प्रधानमंत्री पद तक पहुँचने से रोकना मुश्किल हो जाएगा । अमित शाह की पार्टी पर पकड़ मज़बूत है लेकिन संघ में नितिन गड़करी उनसे भारी है । गड़करी , योगी और शाह के बीच मुक़ाबला उत्तर प्रदेश के चुनाव के बाद होना तय है । अगर योगी उत्तर प्रदेश में वापस आते हैं तो संघ और उद्योगपति दोनो योगी पर दांव खेलेंगे । अगर योगी चुनाव हारते हैं तो गड़करी पर संघ भी ज़्यादा भरोसा करेगा और उद्योगपति भी क्यूँकि शाह की कार्यशेली से संघ भयभीत रहता है । 

अब यह उत्तर प्रदेश की जनता पर निर्भर है कि गड्डे ( मोदी ) से निकालकर देश को खाई ( योगी ) में धकेलना चाहती है या फिर एक साल के गड़करी के शासन को बर्दाश्त करती है । 

मोदी का अगला राष्ट्रपति बनना लगभग तय है क्यूँकि राष्ट्रपति बनकर वो अगले पाँच साल तक राफ़ेल, निजीकरण जैसे अनेक पाप दबा सकते हैं । 

यह मेरे दिमाग़ की उपज है और मेरा संघ या भाजपा से दूर दूर तक कोई सम्बंध नहीं है । हो सकता है ऐसा कुछ भी ना हो ।

जो लोकतंत्र में भी सत्ता से सवाल न कर सके फिर ऐसे लोगों की निष्ठाओं पर क्या कहा जाय? जब निष्ठाएँ सिर्फ़ हस्तिनापुर के राजसिंहासन से चिपक कर रह जाएँ तो त्रासदी ही हिस्से में आती हैं। निष्ठाएँ अगर भेदभावपूर्ण हैं या उचित-अनुचित से परे अपनों के अंध-समर्थन की हद तक है, तो यह एक तरह से सामाजिक अपराध है। पर सत्तावादी और संकीर्ण सोच ने इस तरह के अपराधों को खूब बढ़ावा दिया है। यहाँ सुविधावादी राजनीति कार्य व्यापार के केंद्र में रहती है। आपदा में अवसर तलाश ही लिए जाते हैं। अपने विरोधी को लांछित कर मुख्यधारा से अलग करने की रणनीति भी खूब कारगर हो रही है। जिनको पढ़ने-लिखने से पैदाइशी परहेज हैं वह आसानी से शातिर लोगों के टूल बनते हैं। राजनीति में ऐसी धूर्तताऐं खूब चलती हैं। 

धूर्तता का आलम यह है कि जो कभी स्वयं विभाजन की पक्षधरता के तर्क गढ़ते थे, आज वही गाँधी-नेहरू को बंटवारे का मुख्य जिम्मेदार बताते घूमते हैं। क्या यह सच नहीं है कि मुस्लिम लीग की तरह ये भी द्विराष्ट्रवाद के कट्टर समर्थक थे। भई बंटवारा तो आप भी चाहते थे फिर बंटवारे के लिये गांधी-नेहरू पर तोहमतें क्यों? 

 इसके अलावा मुस्लिम शब्द से ही चिढ़ जाने वाले एक खास राजनीतिक विचारधारा के अनुयायी, श्यामाप्रसाद मुखर्जी के मुस्लिम लीग की सरकार में उप मुख्यमंत्री बनने की वजह क्यों नहीं बताते? 

सुभाष को लेकर नेहरू को न जाने क्या-क्या कहा गया। उन पर सुभाष चन्द्र बोस के परिवार को भी उत्पीड़ित करने का आरोप लगाया गया। सुभाष बाबू से संबंधित फ़ाइल खोलने की पुरजोर मांग करने वाले, दस्तावेजों के खुलते ही (जब पता चला कि नेहरू तो सुभाष बाबू के परिवार को मदद करने के लिए बाकायदा एक ट्रस्ट बनाया हुआ था) पता नहीं कहाँ भूमिगत हो गए। और आश्चर्य कि नेहरू को लांछित करने का कोई अपराध बोध भी नहीं। और तो और इधर सुभाष बाबू की बेटी ने भी नेहरू जी के योगदान की सराहना की।

नेहरू, गांधी भी आलोचना से परे नहीं, पर आलोचना तार्किक तो हो। नेहरू, गाँधी की आलोचना तो क्रांतिकारी भी करते थे और उन आलोचनाओं को गंभीरता से लिया भी जाता था, क्योंकि उनका विरोध वैयक्तिक न होकर सैद्धांतिक होता था। कई मामलों में नेहरू भी गाँधी से बिलकुल अलग राय रखते थे पर यह विरोध भी सैद्धांतिक ही रहता था। 

नैतिक चेतना और ऐतिहासिक तथ्य सत्ता सापेक्ष नहीं होते, वे सर्वदा एक से रहते हैं। सत्ता चाहे जिसकी हो पर यदि वह अनैतिक मार्ग पर चलेगी तो नैतिक चेतना उसके विचलन पर सवाल खड़ा करेगी ही। भ्रष्टाचार और सुविधावादी राजनीति को लेकर कांग्रेस को भी सत्ता में रहते आंदोलनात्मक विरोध सहना पड़ा। यह जागरूक नेतृत्व के लिए जरूरी भी था।

पर आज जिस तरह से व्यवस्थागत खामियां मृत्यु की वजह बन रहीं हैं, क्या व्यवस्था के नियामकों से सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए? आख़िर सत्तावादी चरित्र की धूर्तताओं का खुलासा करने वालों को जेल भेजे जाने पर एक वर्ग की नैतिकतावादी मान्यताएं सो क्यों जाती हैं? क्या यह सही नहीं है कि पप्पू यादव को महज इसलिए जेल भेज दिया गया, क्योंकि उन्होंने अस्पताल की जगह सांसद रूड़ी के आवास पर तिरपाल से ढंके एम्बुलेंसों की सूचना दी थी। सत्ता की निरंकुशता और उनके भ्रष्टाचार पर बोला ही जाना चाहिए, फिर चाहे वह कांग्रेस हो या भाजपा या कि कोई अन्य दल।  क्या नैतिक मूल्यों की चेतना भी व्यक्ति या दल के अनुसार बदलती रहती है?

error: Content is protected !!