* यह पहला मौका नहीं है जब साईं बाबा की मूर्ति को तोड़ने या नुकसान पहुँचाने की कोशिश की गई हो।
* राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और स्वामी रामदेव ने भी साईं बाबा का विरोध किया
* आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म के अनेक पंथों और सम्प्रदायों को परस्पर जोड़ने के लिए अपना जीवन होम कर दिया था।
* पहले अपने बच्चों का भविष्य देखेंगे, उनकी उन्नति की सोचेंगे या फिर सिर्फ कट्टरता ?
* नफरत फैलाने वाला कोई और नहीं बल्कि बौद्ध धर्म प्रचारक अशीन विराथु 

अशोक कुमार कौशिक

 सोशल मीडिया पर राजधानी दिल्ली के शाहपुर जाट इलाके का एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें एक मंदिर में एक मज़दूर बल्लम से साईं प्रतिमा हटा रहा है और पास खड़ा एक आदमी उसे निर्देश दे रहा है कि बल्लम यहाँ नहीं, यहाँ मारो। यही व्यक्ति मूर्ति गिर जाने के बाद उसे भारी हथौड़े से तोड़ने की कोशिश करता हुआ भी दिखता है, लेकिन असफल होने पर हथौड़ा वह मज़दूर को थमा देता है। इस बीच यह व्यक्ति यह कहते हुए भी साफ़-साफ़ सुना जा सकता है कि साईं बाबा मुसलमान थे, उनकी मूर्ति का यहाँ क्या काम। वो तो 1918 में मर गए थे तो वो भगवान कैसे हो सकते हैं। मूर्तियां लगाना ही है तो चंद्रशेखर, भगत सिंह और राजगुरु की लगाना चाहिए। हालांकि इस बारे में स्थानीय लोगों का कहना है कि साईं प्रतिमा खंडित हो गई थी, उसे गांव वालों की सहमति से ही हटाया गया है। इसको लेकर कुछ लोग भ्रम फैला रहे हैं।

यह पहला मौका नहीं है जब साईं बाबा की मूर्ति को तोड़ने या नुकसान पहुँचाने की कोशिश की गई हो। कुछ ही सालों पहले मेरठ के कनौड़ा गांव में साईं बाबा आश्रम की ज़मीन को लेकर उसके कर्ताधर्ताओं में विवाद हुआ तो एक पक्ष ने आश्रम परिसर में बनी कुटिया और साईंबाबा की 16 फ़ीट ऊंची मूर्ति तोड़ दी थी। ग़नीमत यह रही कि इस मामले में कोई धार्मिक कारण नहीं था। इस घटना के एक साल बाद अमेठी के पकसरवा गांव में एक युवक ने साईं की मूर्ति को जलाने का प्रयास किया था। इसी साल काशी के एक शिव मंदिर में साईं बाबा की मूर्ति तोड़े जाने के बाद शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती के शिष्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती और उनके साथियों के ख़िलाफ़ पुलिस ने मामला दर्ज किया था। हालाँकि स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का कहना था कि चूँकि वे विश्वनाथ गलियारे के लिए मन्दिरों को तोड़े जाने के विरोध में पदयात्रा कर रहे हैं, इसलिए यह कार्रवाई की गई।

शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती का ज़िक्र आया है तो यह याद करना लाज़मी होगा कि साईं बाबा का पहले-पहल विरोध उन्होंने ही शुरू किया था। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ समय बाद ही उन्होंने एक बयान देते हुए साईं बाबा को भगवान मानने से इनकार कर दिया था। साईं को हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक मानने से भी उन्होंने मना कर दिया और कहा कि उनकी पूजा को बढ़ावा देना हिन्दू धर्म को बांटने की साजिश है।  शंकराचार्य ने साईं बाबा के मंदिर बनाए जाने का भी विरोध किया। उन्होंने साईं बाबा के नाम पर कमाई किए जाने का भी आरोप लगाया और कहा कि साईं बाबा अगर वाकई हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक होते तो मुसलमान भी उनमें आस्था रखते। शंकराचार्य इतने पर ही नहीं रुके, कुछ समय बाद उन्होंने एक पोस्टर जारी किया जिसमें हनुमान जी को पेड़ की शाख से साईं बाबा की पिटाई करते हुए दिखाया गया था. हालांकि उन्होंने तब कहा था कि उनका विरोध साईं बाबा से नहीं, बल्कि उनके नाम पर फैलाए जा रहे पाखंड से है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और स्वामी रामदेव ने भी साईं बाबा का विरोध किया है। रामदेव के मुताबिक साईं बाबा एक महान व्यक्ति थे लेकिन उन्हें भगवान का दर्जा देना ग़लत है। संघ के तत्कालीन सरकार्यवाह भैया जी जोशी ने कहा कि न तो खुद साईं बाबा ने अपने आपको, न ही समाज ने उन्हें भगवान माना। भैया जी का कहना यह भी था कि ऐसे मुद्दों पर विवाद खड़ा करके समाज में विद्वेष नहीं फैलाना चाहिए। संघ के प्रवक्ता मनमोहन वैद्य ने भी तब कहा था कि प्रत्येक हिन्दू को अपना आराध्य तय करने की आज़ादी है। ज़ाहिर है कि दोनों ही बयान उन लोगों को ध्यान में रखकर दिए गए जो संघ की विचारधारा को तो मानते हैं लेकिन साईं बाबा में भी आस्था रखते हैं। हालांकि हम लगातार यह देख ही रहे हैं कि किन मुद्दों पर कौन और कैसे विवाद खड़े कर रहा है और कौन समाज में विद्वेष फैला रहा है।

गौरतलब है कि साईं बाबा की आराधना तो बरसों से होती आ रही है और पहले कभी उस पर ऐसा विवाद नहीं हुआ। स्वरूपानंद जी जिस पीठ पर आसीन हैं, उसकी स्थापना करने वाले आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म के अनेक पंथों और सम्प्रदायों को परस्पर जोड़ने के लिए अपना जीवन होम कर दिया था। स्वामी स्वरूपानंद, आदि शंकराचार्य के उत्तराधिकारी माने जाते हैं, लेकिन उनके बयान उन आदि गुरु के मूल्यों और सिद्धांतों के उलट अपना असर दिखा रहे हैं। यह देखना दुखद है कि जिस संत ने समाज को  ‘सबका मालिक एक’ का संदेश दिया, चंद लोग उसी संत की मूर्ति तोड़ने पर आमादा हो रहे हैं।

कट्टर हिन्दू आखिर कितने होंगे?

ये हिंदुत्व का राग , कट्टरता सिर्फ भरे पेट वालों के चोंचले हैं, धर्म के नाम पर दुकानदारी भर है और राजनीतिक रोटी सेंकने के हथियार मात्र हैं। लेकिन किसी भूखे-बेकार-गरीब हिन्दू को पूछिए कि उसे हिंदुत्व चाहिए, या फिर विकास? बेहतर एडमिनिस्ट्रेशन? न्याय व्यवस्था, नारी सुरक्षा, परस्पेर प्रेम-सोहाद्र का वातावरण? मेरा तो यही मानना है कि प्रायः सारे हिन्दू कट्टरता से परहेज करते हैं । उन सब को हिंदुत्व तो चाहिए, लेकिन उससे पहले सुशासन, विकास ही चाहिए। 

वो कहावत है ना, भूखे भजन ना होये गोपाला । इसलिए, सिर्फ और सिर्फ हिंदुत्व की अवधारणा तो कुछेक गिने चुने कट्टर को ही चाहिए होता है। अब आप एक बार स्वयं को सच्चे मन से तौल लीजिये, आपके सामने एक तरफ सिर्फ कट्टरता का राग हो लेकिन सुशासन ना मिले, देश की अर्थ व्यवस्था गड्ढे में जा रही हो, गरीब लोग बुरी तरह से परेशान हो रहे हो, न्याय व्यवस्था एक तरफा हो गई हो, नारी अस्मिता के साथ खिलवाड बध चुका हो तो आप क्या प्रेफर करेंगे? आप पहले अपने बच्चों का भविष्य देखेंगे, उनकी उन्नति की सोचेंगे या फिर सिर्फ ?

अब आप स्वयं ही देख लीजिये कि देश में ऐसे भरे पेट कट्टर हिंदूवादी कितने भर होंगे? इसलिए, जब एक तरफ विकास और दूसरी तरफ भ्रष्टाचार युक्त हिंदुत्व में से किसी एक को चुनना हो, तो सारे गरीब और सारे समझदार हिन्दू विकास को ही चुनेंगे, ये मेरा दावा है.अब जैसा बीज बोयेंगे, आगे जाकर वैसी ही फसल काटेंगे, निर्णय आपका।

अति कट्टरता के उदाहरण अफगानिस्तान म्यांमार है। म्यांमार में एक फरवरी के बाद से अब तक 500 लोग मारे जा चुके हैं। ये तमाम लोग म्यांमार की सेना की गोली से मारे गए हैं। म्यांमार में रोहिंग्या के जनसंहार से पहले उनके ख़िलाफ नफरत भड़काई गई थी। रोहिंग्या के ख़िलाफ नफरत फैलाने वाला कोई और नहीं बल्कि बौद्ध धर्म प्रचारक अशीन विराथु था। इस शख्स को प्रतिष्ठित TIME मैग्ज़ीन ने बौद्ध आतंकवाद का ‘चेहरा’ करार दिया था। अशीन विराथू रोहिंग्या के ख़िलाफ नफरत फैलाता रहा और फिर वह दिन आया जब इसके द्वारा फैलाई गई नफरत ने छः लाख रोहिंग्या को अपना देश छोड़ने के लिये मजबूर कर दिया, हज़ारों मारे गए। मरने वालों में बच्चे, बूढ़े, जवान, महिलाएं सभी शामिल थे। रोहिंग्या की महिलाओं के साथ दरिंदगी भी हुई। रोहिंग्या जनसंहार में म्यांमार  का समाज, सेना और बौद्ध चरमपंथी शामिल रहे।

अब म्यांमार में रोहिंग्या नहीं हैं। लेकिन म्यांमार एक बार फिर जल रहा है। म्यांमार में एक फरवरी को सेना ने तख़्तापलट कर दिया था, और लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी गई आंग सांग सूकी को गिरफ्तार कर लिया था। अब म्यांमार सेना के हवाले है, लोकतंत्र खत्म हो चुका है। लोकतंत्र की बहाली के लिये प्रदर्शन करने वाली जनता पर म्यांमार की सेना गोलियां चला रही हैं। म्यांमार के बहुसंख्यक बौद्ध समुदाय के दिमाग़ो में रोहिंग्या के ख़िलाफ ज़हर भरने वाला अशीन विराथु अब सेना का समर्थन कर रहा है। एक वह भी वक़्त था जब म्यांमार की बहुसंख्यक समुदाय को अशीन विराथू में ‘मसीहा’ और रोहिंग्या मे ‘दुश्मन’ नज़र आया था। लेकिन आज वही अशीन विराथू म्यांमार की सेना के साथ है। मौजूदा म्यांमार एक सबक़ है, खासकर उन देशों के लिये जो बहुसंख्यकवाद से ग्रस्त होकर मानवीय मूल्यों को नुक़सान पहुंचाते हैं। मौजूदा म्यांमार उस समाज के लिये भी सबक़ है जो अपने समाज में ‘अशीन विराथू’ पालते हैं और किसी एक संप्रदाय की नफरत में दिमाग़ी अपाहिज़ हो जाते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि अशीन विराथू जैसे प्राणी लाशों पर पैर रखकर ही सत्ता की कुर्सी तक पहुंचते हैं। तीन साल पहले उन्होंने रोहिंग्या की लाशों पर चढ़कर सत्ता हासिल करने की कोशिश की थी, लेकिन अब ‘अपने’ ही लोगों की लाशों पर चढ़कर सत्ता शिखर पर पहुंच चुके हैं।

भारत में भी पिछले कुछ वर्षों में बहुत सारे ‘अशीन विराथू’ उग आए हैं। इनमें से कई तो मंदिर के महंत हैं, कुछ टीवी के एंकर हैं, कुछ टीवी के पैनेलिस्ट हैं, कुछ ‘बुद्धिजीवी’ हैं। इन्हें भी सत्ता का उसी तरह संरक्षण प्राप्त है जिस तरह अशीन विराथू को प्राप्त था। लेकिन आज म्यांमार कैसा है यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है।

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