* बंगाल में इतिहास लिखा जा रहा है, जो देश की राजनीति की दशा व दिशा ही देगा।* आसाम में फिर से सरकार बनाने का भाजपा का दावा।* आसाम में उम्मीदवार की गाड़ी में पकड़ी गई ईवीएम।* टी एन शेषन को दबंग इलेक्शन कमिश्नर क्यों कहा, इसलिए कि उनसे पहले और बाद में इस कुर्सी पर जो आये, वो चूं चूं के मुरब्बे । * ईवीएम पर उठते सवाल और चुनाव आयोग का अड़ना हास्यास्पद है और भाजपा का ईवीएम को डिफ़ेंड करना संदेहास्पद ।* उद्धव ठाकरे पहले व्यक्ति जो अपने राज्य में बैलेट पेपर से चुनाव के लिए प्रयास में लगे ।* विकसित देशों में आज भी बैलेट पेपर से ही चुनाव होते है । अशोक कुमार कौशिक बंगाल के पहले चरण में भी 90 मशीन खराब होने की खबर है, और दूसरे चरण में भी लगातार मशीन खराब होने की खबर रही ह। आसाम में भाजपा नेता की गाड़ी में ईवीएम का मिलना, मतलब मोदी 200 सीट लेकर ही आएंगे । 2019 में ममता की पार्टी को नंदीग्राम में 63 % फीसदी वोट मिला था और पूरे बंगाल में केवल 43 % मिला था। मतलब उसे 20 फीसद मत अधिकारी फेमिली की वजह से मिला था क्योंकि वँहा शूभेन्दु के रिश्तेदार चुनाव लड़ रहे थे। तो अगर हम यह 20 ℅ बीजेपी के वोट में मिला दे तो उसका वोट 30 से 50 हो जाता है। इस हिसाब से शूभेन्दु को यह चुनाव जीतना चाहिए, लेकिन रुकिए कहानी में टिविस्ट है। नंदीग्राम में 26 फीसदी वोट मुस्लिम वर्ग के है, जो इस बार ममता को 90 फीसदी जायेगा। मतलब मुकाबला कांटे का हो जाता है तो मुकाबला अधिकारी परिवार की विरासत औऱ ममता की पार्टी की कैडर की बीच है। इतनी सारी परस्पर विरोधी ग्राउंड रिपोर्टस पढ़ने के बाद नन्दीग्राम का मुकाबला मुझे 2015 के बिहार चुनाव की याद दिला रहा है । 2 मई को पहले दो राउंड में अधिकारी आगे चलेंगे फिर ममता लीड करेगी। यह चुनाव बंगाल के इतिहास का सबसे बड़ा चुनाव सिद्ध होगा। बंगाल में एक इतिहास लिखा जा रहा है, जो इस देश की राजनीति की दशा दिशा ही बदल देगा। उधर असम में भाजपा की ओर से फिर से सरकार बनाने का जो दावा किया जा रहा है, वह बेबुनियाद नहीं लग रहा। सूबे में दूसरे दौर के मतदान के बाद करीमगंज जिले की पाथरकांडी सीट से भाजपा उम्मीदवार कृष्णेंदु पाल की कार में चार ईवीएम मिली। इस मामले को लेकर हंगामा मचने पर चुनाव आयोग को एक पीठासीन अधिकारी सहित मतदान कार्य से जुड़े चार अधिकारियों को मजबूरन सस्पेंड करना पड़ा है। इस पूरे घटनाक्रम को लेकर भाजपा ने तो हालांकि चुप्पी साध रखी है लेकिन बिकाऊ मीडिया की ओर से सफाई दी जा रही है कि पोलिंग टीम की कार खराब हो जाने के कारण पोलिंग अधिकारियों ने भाजपा उम्मीदवार की कार से लिफ्ट ले ली थी। बूथ कैप्चरिंग अस्सी और नब्बे के दशक में नलिनी सिंह की रिपोर्टिंग, उस दौर में दूरदर्शन देखने वालों को जरूर याद होंगी। बिहार के अंदरूनी इलाकों में हिंसा, भय और मारकाट के बाद बाहुबलियों द्वारा बूथ कब्जा करने की लोमहर्षक कथाओं ने हमारे रोंगटे खड़े किए थे। आज यह चीजें किसी और लोक, किसी और देश की बात लगती है। भारत के पहले चुनाव आयुक्त टीएन शेषन को इस पर रोक लगाने का श्रेय है। पर यह आज भी पूरी तरह रुकी नहीं। सरकार और प्रशासन के सहारे इसके अपवाद आज भी देखने को मिलते है। पर दुख है की शेषन के पहले और बाद में भी कोई चुनाव आयुक्त प्रभावशाली व दृढ़ इच्छा शक्ति वाला नही मिला। उदाहरण नन्दीग्राम में वोटिंग चल रही थी और साहब दूसरे जिले में रैली कर रहे है सारी मीडिया उनके लाइव भाषण दिखा रही है और सारी आचार सहिंता की धज्जियां उड़ा रही है। भारत का चुनाव आयोग 2014 के चुनाव से पंगु हो गया है। इतना लाचार और बेबस चुनाव आयोग किसी ने नही देखा होगा। शेषन ने जो अभूतपूर्व काम और नाम चुनाव आयोग को दिया था वो इस संस्था की साख को कई गुना बढ़ा गया था। लेकिन अफसोस है कि यह सर्वोच्च संस्था आज एक औपचारिकता बन कर रह गई है। वो एक्जिट पोल को बंद कर सकती है लेकिन सरेआम हो रही नोटंकी पर कुछ नही कर सकती है। साहब ने चुनाव आयोग नामक संस्था को गुजरात से ही नकारना शुरू कर दिया था। पहले 2007 के विधानसभा चुनाव में मुख्य चुनाव आयुक्त जे एम लिंगदोह को जेम्स माइकल लिंगदोह बोलकर उनके धर्म को उछाल कर इटली से जोड़ा। फिर मियां मुशर्रफ बोलकर पोलराइज किया। वो लगातार इस संस्था को कमजोर सिद्ध करते आए है। वो लगातार अपने भाषणों में चुनाव आयोग को गाहे बगाहे निशाना बनाते रहे है ।साहब 2014 के चुनाव के दौरान बूथ से कुछ दूरी पर अपना चुनाव चिन्ह दिखा रहे थे। जैसे वो चुनाव आयोग को मुँह चिड़ा रहे हो कि मैं तो सरे आम उल्लंघन कर रहा हूँ, आप रोक सको तो रोक लो। दरअसल 48 घँटे पहले चुनाव प्रचार बंद करना एक पुराना ढकोसला है। भारत के वोटर के विवेक पर प्रश्नचिन्ह लगाता है सरकारो को हमे हर बार लाइन खड़ा करने का शोक है। चाहे नोटबंदी हो या तालाबंदी या फ़ॉर वोटिंग लाइन। हर जगह आपको एक नागरिक नही लेकिन गुलाम समझा गया है। शेषन के प्रयासों पर बात करने के पूर्व ये बताना जरूरी है, की उन्हें पहला इलेक्शन कमिश्नर क्यों कहा। इसलिए कि उनसे पहले और बाद में इस कुर्सी पर जो आये, वो चूं चूं के मुरब्बे निकले। टीएन शेषन कोई पांच साल इस पद पर रहे। जब आये थे, फर्जी वोटिंग, बूथ कैप्चरिंग और तमाम इलेक्टोरल फंदेबाजी का बोलबाला था। शेषन ने मतदाता पहचान पत्र लागू कराये। पूरे देश मे हर वोटर को इलेक्शन कमीशन द्वारा जारी वोटर आई डी जारी किया गया। आज फोटोयुक्त पहचान पत्र के बगैर आप वोट नही दे सकते। यह नियम शेषन की देन है, जिसने फर्जी वोटिंग पर एकदम से रोक लगा दी। दूसरी प्रक्रिया, सेंट्रल फोर्सेस की तैनाती थी। इसके पहले पोलिंग की सुरक्षा स्थानीय बल करते थे। याने पुलिस, फारेस्ट गार्ड, राज्य के सशस्त्र बल, होम गार्ड आदि, ये सारे बल स्टेट गवर्नमेंट के अधीन होते। इलेक्शन कोड ऑफ कंडक्ट तब कोई नही जानता था। तो राज्य की सरकार में बैठे पावरफुल लोग काफी प्रभावित कर सकते थे। कोड ऑफ कंडक्ट लागू होने के बाद , ग़ैरनिरपेक्ष अफसरों के ट्रान्सफर इलेक्शन कमीशन ने करना शुरू किया। ऑब्जर्वर नियुक्त किये, उन्हें असीमित पावर दी। और लगाई सेंट्रल फोर्सेस, भारी मात्रा में । हर जगह लगाने लायक फोर्स नही, तो एक स्टेट मे चुनाव दो-तीन चरण में कराने की प्रथा आयी। जिससे फोर्स को एक जगह चुनाव निपटा कर दूसरी जगह रवाना कर दिया जाता। कम जगह पोलिंग होने से उपलब्ध फोर्स से काम बन जाता। अब हर जगह पोलिंग के वक्त फोर्स की भारी तैनाती होती है। ऐसे खतरनाक हथियारों के साथ कि किसी मामूली गुंडे की हिम्मत न हो, पोलिंग बूथ की ओर आंख उठाकर देखने की।अब इसी नियम को पश्चिमी बंगाल में हथियार बना लिया गया। देश में पहली बार आठ चरणो में चुनाव की रणनीति बनाकर सत्ता हथियाने दांव चला गया । सवाल उठता है जब लोकसभा चुनाव में सीमित चरणो में चुनाव सम्पन्न हुवा तो विधानसभा में क्या दिक्कत है? फर्क पड़ा है सिक्योरिटी फोर्सेज के डिप्लॉयमेंट से। जिन लोकल बॉडी इलेक्शन में आज भी ऐसी घटनाएं होती है, उन जगहों पर न केंद्रीय चुनाव आयोग का दखल होता है, न सेंट्रल फोर्सेज का। इस फर्क को नकार कर कोई कहे कि मशीनों ने बूथ कैप्चरिंग रोक दी, तो मान लें कि आपके सामने एक महामूर्ख बैठकर बकवास कर रहा है। या मशीन के बने रहने में उसका कोई वेस्टेड इंटरेस्ट है। क्या बूथ कैप्चरिंग बन्द हो गयी? ईवीएम एक फर्जी मशीन है, अपारदर्शी है, और इसके जस्टिफिकेशन के लिए दिए जाने वाले तमाम तर्कों में एक यह भी है कि फर्जी वोटिंग और बूथ कैप्चरिंग रूक गई है। यह बकवास, और निरर्थक तर्क है। जिसे बूथ लूटकर 1000 मतपत्र पर अपना ठप्पा लगाकर, मोड़कर डब्बे में डालने की हिम्मत है, उसमे 1000 बार बटन दबाने की भी हिम्मत है। दोनों ही प्रोसेस में डेढ़ दो धंटे लगेंगे। मतपेटी में स्याही डालकर उसे खराब करने की जगह मशीन को हथोड़े से कूटपीस दिया जा सकता है। तो फर्क मतपत्र से मशीन के आने से नही पड़ा। चुनाव आयोग का बूथ कैप्चरिंग वाला तर्क भी तर्क संगत नहीं है । हर बूथ पर सीसीटीवी कैमरा होता है , केंद्रीय सुरक्षा बल के जवान होते हैं तो फिर कोई बूथ कैप्चरिंग कैसे कर लेगा ? और अगर कोई बूथ कैप्चरिंग इसके बाद भी कर सकता है तो जो ठप्पा लगा सकता है , क्या उसके लिए बटन दबाना मुश्किल है ? उद्धव ठाकरे पहले व्यक्ति हैं जो अपने राज्य में बैलेट पेपर से चुनाव के लिए प्रयास में लगे हैं, अगले सत्र में बिल पेश किया जा सकता है, अब वो भाजपा के साथी रहे हैं कुछ तो बात होगी ही ? अगर आप ईवीएम के विरोध का मतलब भाजपा का विरोध समझते हैं तो आपने मान लिया है कि भाजपा केवल ईवीएम के सहारे जीत रही है । भाजपा के कई समर्थक तो अब ईवीएम के नाम पर वोट माँगते हैं , वो प्रचार में साफ़ साफ़ बोलते हैं कि वोट आप किसी को भी दे दो , मिलेगा भाजपा को ही , इससे अच्छा है कि सीधे सीधे भाजपा को ही वोट दे दो । ईवीएम से पहले भी भाजपा की सरकारें कई प्रदेश में बन चुकी थी और केंद्र में भी । ऐसा नहीं है कि ईवीएम हटते ही भाजपा 1984 के समय में पहुँच जाएगी जब उसे पूरे देश में केवल दो सीट मिली थी । ईवीएम पर देश की बड़ी आबादी को भरोसा नहीं है । भाजपा को छोड़कर लगभग सभी प्रमुख दल चुनाव आयोग से ईवीएम हटाने की माँग कई बार कर चुके है । दुनिया के कई विकसित देशों में ईवीएम प्रणाली से चुनाव शुरू हुए और बाद में शिकायत के बाद वहाँ से ईवीएम हटायी गयी । लगभग सभी विकसित देशों में आज भी बैलेट पेपर से ही चुनाव होते है । चुनाव आयोग का ईवीएम पर अड़ना हास्यास्पद है और भाजपा का ईवीएम का डिफ़ेंड करना संदेहास्पद । जब मोदी की लोकप्रियता देश में इतनी ज़बर्दस्त है तो क्या बैलेट पेपर से वो लोकप्रियता उड़ जाएगी ? मोदी शाह सरकार खुले तौर पर संदेह के घेरे में है । सिर्फ सत्ता हथियाना ही इनका ध्येय है : by hook or by crook. चुनाव आयोग को compromise करो, ईवीएम की प्रोग्रामिंग करो, जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों को खरीद लो, राज्यपाल, उपराज्यपाल, राष्ट्रपति, संसद जैसी संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग करो । इन्हें किसी का डर नहीं है, न्यायपालिका का भी नहीं । दुनिया के अधिकांश देशों में बैलेट पेपर का इस्तेमाल होता है । कुछ देशों में ईवीएम का प्रयोग हुआ और फिर बैलेट पेपर पर लौट आये । निसंदेह, ईवीएम बहुत सुविधाजनक है, लाने ले जाने में आसानी के अतिरिक्त केवल 1 बटन पर क्लिक करने से परिणाम आ जाते हैं । बैलेट्स की गिनती में बहुत समय लगता है और सही तरह से फ़ोल्ड न करने के कारण बहुत से वोट खराब हो जाते हैं, जो कि ईवीएम में नहीं होता । चुनाव अधिकारियों की मिलीभगत से ठप्पे लगाकर झूटी वोटिंग होती आयी है यह बात सोलह आना सही है । ईवीएम टेम्पर प्रूफ नहीं है । मेरी इस विषय में कोई जानकारी नहीं है और (तथाकथित) टेम्परिंग के बावजूद विपक्ष की सरकारें बनी हैं । इसका एक कारण यह बताया जाता है कि लिमिटेड टेम्परिंग की जाती है । दूसरी ओर स्थानीय निकायों में जहाँ भी बैलेट्स का प्रयोग हुआ है बीजेपी चुनाव हारी है ! राजनीतिक पार्टियाँ ईवीएम के ख़िलाफ़ ठोस रणनीति क्यों नहीं बना रही है , यह वो जाने लेकिन हर व्यक्ति को इतना संतुष्ट करना चुनाव आयोग की ज़िम्मेदारी है कि उसका वोट , उसी प्रत्याशी को गया है जिसे उसने वोट दिया था । अगर में अपनी बात करूँ तो मुझे बिल्कुल भी इस बात का यक़ीन नहीं है कि में जिसे वोट दे रहा हूँ , उसी को मेरा वोट मिल रहा है। नागरिकों का चुनाव पर विश्वास क़ायम रहे , इसके लिए ईवीएम का हटना ज़रूरी है । रही विपक्ष की भूमिका, कहाँ है विपक्ष ? सब अवसरवादी तो बीजेपी जॉइन करने की होड़ में हैं ! सबको मानो साँप सूँघ गया है । अब यह ईडी का कमाल है या सीबीआई का पता नहीं । परंतु देश में लोकतंत्र की दुर्दशा के लिये ज्यादा जिम्मेदार मायावती, अखिलेश, आरजेडी, कांग्रेस, वामदल, आप, आईएनएलडी, आरएलडी, शिवसेना, राकपा और क्षेत्रीय दल इत्यादि हैं । Post navigation अलवर के बहरोड़ के पास में राकेश टिकैत के काफिले पर हमला । 14 युवक गिरफ्तार, राकेश टिकैत के काफिले पर हमला करने के आरोप में