– ज़रा नज़र घुमाइए आसपास तो पाएंगे कि देश भर में जितने भी बड़े प्रोजेक्ट्स चल रहे हैं उनका कहीं न कहीं से गुजरात कनेक्शन निकल ही आएगा।
– सत्ता से सवाल पूछने की आदत डालिए, प्रश्न कीजिए लेकिन ये उन परिस्थितियों के लिए है जहां राजनेताओं के अंदर ईमानदारी, शरम हया कुछ शेष बचा हो।
– कोई  नेता बताईये जो जनता को जागरूक करने का कार्य कर रहा हो? विपक्ष से भी सवाल पूछना शुरू कीजिए ।
– लगातार चुनाव हारते रहें तो पार्टी कमज़ोर नहीं तो क्या मज़बूत होगी।
– 99 प्रतिशत जनता अपने नेताओं से खुश नहीं होगी, वही 99 प्रतिशत जनता भी खांचो में बंटी रहेंगी।

अशोक कुमार कौशिक

 क्या गुजरात मोदी के नेतृत्व देश को लूटने में लगा हुआ है ? क्या देश के सारे संसाधनों और पैसे के स्रोतों पर गुजरात का कब्जा हो गया है? क्या प्रधानमंत्री मोदी देश के सारे आर्थिक स्रोतों पर गुजरातियों का कब्ज़ा करा देना चाहते हैं? लगता तो ऐसा ही हैं, ज़रा नज़र घुमाइए आसपास तो पाएंगे कि देश भर में जितने भी बड़े प्रोजेक्ट्स चल रहे हैं उनका कहीं न कहीं से गुजरात कनेक्शन निकल ही आएगा।

प्रधानमंत्री ख़ुद गुजराती हैं और सरकार में नंबर दो पॉवरफुल पोस्ट गृहमंत्री भी गुजराती, सरकार चला रही सत्ताधारी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष कहने को तो नड्डा हैं, पर सब जानते हैं कि आख़िर पार्टी चला कौन रहा है, वो फिर से गुजराती अमित शाह।

2014 से अब तक जिन उद्योगपतियों की संपत्ति सबसे तेज़ और ज्यादा बढ़ी( नोटबन्दी,जीएसटी, कोरोना के बावजूद) वो भी गुजराती। पिछली सरकार में तो सुप्रीम कोर्ट, सीबीआई, आरबीआई तक मे सारे नियम कानून को धता बता कर गुजरात कनेक्शन वालो को ही प्रमुख बनाया गया।

देश के जितने भी बड़े आर्थिक श्रोत हैं आप पाएंगे कि वहां तैनाती किसी न किसी गुजरात कनेक्शन वाले नौकर शाह की ही पोस्टिंग होगी जिसका काम ही है पैसे पर कंट्रोल। मोदी जितनी भी सरकारी कंपनियों को बेच रहे हैं लगभग सब उनके मित्र गुजराती ब्यापारियों को ही मिल रही हैं। बैंकों का फ्रॉड कर पैसा लेके भाग जाने वाले अधिकांश ब्यापारी भी गुजराती ही रहे।

 लोग कहते हैं कि सत्ता से सवाल पूछने की आदत डालिए, प्रश्न कीजिए लेकिन ये उन परिस्थितियों के लिए है जहां राजनेताओं के अंदर ईमानदारी, शरम हया कुछ शेष बचा हो। यहां तो सभी के अंदर केवल जनता का भगवान (मदद या सेवा के भाव में नहीं बल्कि सर्वश्रेष्ठ सर्वाधिकार प्राप्त के अर्थ में) बनने की होड़ लगी रहती है। कोई एक नेता बताईये जो जनता को जागरूक करने का कार्य करता हो। इनसे अच्छा तो कम से कम मोदी जी हैं जो भले ही एकतरफा हो लेकिन संवाद तो करते हैं। यहां तो सभी पार्टियों के नेता केवल उसी भेड़चाल में शामिल होते हैं क्योंकि उन्हे केवल वोट से मतलब है। देश का राजनीतिक सिस्टम समझिये कि 3500 रुपये मानदेय पाने वाला एक गांव का प्रधान भी 35 लाख चुनाव में खर्च करता है। 

– विपक्ष से भी सवाल पूछना शुरू कीजिए 

विपक्ष से सवाल बिल्कुल पूछा जाना चाहिए कि आप क्या करेगें? आपमें और उनमें क्या अंतर रहेगा? नहीं तो शीर्ष पर केवल चेहरा बदलता है। आज कांग्रेस का घोषणापत्र है कल नए कलेवर में वही भाजपा का होता है। यह लगभग प्रमाणित हो गया है कि विपक्ष केवल जनता की नाराजगी का फायदा उठाकर सत्ता में आने का स्वप्न देखता है। विपक्ष का दिवालियापन देखिए हर चुनाव में लगभग बीजेपी उन सबको अपनी पिच पर खींच लाती है। आज किसी भी चुनाव को देखिए सभी पार्टियां घूमफिर कर मंदिर मस्जिद और वोटों के ध्रुवीकरण पर आ जाती हैं। सारा खेल बस किसी तरह बस प्रतिद्वंद्वी से ज्यादा वोट पाने के लिए होता है।

जनता इस विश्वास की होती है कि देश का नेतृत्व वही कर सकता है जो अपनी पार्टी का नेतृत्व कर सकता हो। राहुल गांधी जनता के इस विश्वास तक नहीं पहुंच पाये हैं कि वे अपनी पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं। यही चीज़ है कि नरेंद्र मोदी जनता के हित में न होते हुए भी अपनी इसी क्षमता के बल पर देश के नेता बने हुए हैं।

हम देखते हैं कि कहीं भी चुनाव होता है, निकाय-पंचायत से लेकर विधानसभा और संसद तक के लिए, सब जगह नरेंद्र मोदी अपने अमले के साथ डट जाते हैं। जबकि नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं। काम के पहाड़ उनके सामने हैं लेकिन उसे छोड़कर वे चुनाव के जंग में पहुंच जाते हैं और विरोधी पार्टियों पर सर्जिकल स्ट्राइक करने लगते हैं। साथ छोटे-बड़े नेताओं की फ़ौज पर फ़ौज उतर पड़ती है उनका साथ देने के लिए। 

इधर राहुल गांधी के साथ क्या है ? किसी राज्य में वे हांफते-दौड़ते नज़र आते हैं, उनकी टीम नदारद रहती है। वे चुनाव हार जाते हैं। किसी राज्य में वे एकाध रैलियां कर लेते हैं, बाक़ी सब उनकी छोटी-सी टीम देखती है। जबकि अभी भी उनके पास बहुत बड़ी टीम है। नतीजा फिर यही कि वे चुनाव हार जाते हैं। तो किसी राज्य में वे गठबंधन के सहारे चुनाव लड़ते हैं फिर सारा चुनावी ज़िम्मा गठबंधन की प्रधान पार्टी के नेता के ऊपर ओढ़ाकर वे ख़ुद आराम करते हैं। नतीजा फिर वही, वे चुनाव हार जाते हैं। लगातार चुनाव हारते रहें तो पार्टी कमज़ोर नहीं तो क्या मज़बूत होगी। पार्टी के पुराने और पक्के नेता पार्टी को कमज़ोर होता कब तक देखेंगे। आख़िर वे भी विचार मंथन पर उतर आये क्योंकि भविष्य केवल राहुल गांधी का नहीं, उनका भी है। 

 राहुल गांधी अपना भविष्य बिगाड़ सकते हैं लेकिन उनके पीछे पुराने और धाकड़ नेता भी अपना भविष्य क्यों बिगाडें ? प्रश्न जितना उनके भविष्य का है, उतना ही राहुल गांधी के भविष्य और देश के भविष्य का भी है। तो इस प्रश्न पर विचार विमर्श आवश्यक है। यह राहुल गांधी को सावधान और प्रेरित करने के ज़रूरी है। क्या यह पुराने वरिष्ठ नेता जानबूझकर राहुल गांधी को कमजोर कर रहे हैं? यह भी अब जनता को समझना होगा। साथ ही यह भी ज़रूरी है कि ग़ुलाम नबी आज़ाद गुट के नेता ज़मीन पर कड़ी मेहनत करें अगर वे भाजपा में शामिल होने नहीं जा रहे हैं।

आप एक सर्वे कीजिए देश की 99 प्रतिशत जनता अपने नेताओं से खुश नहीं होगी लेकिन नेताओं की रैलियों की शोभा बढाने लाखों लोग पहुंच जाएंगें। वही 99 प्रतिशत जनता भी खांचो में बंटी रहेंगी।

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