स्वर्गीय राजेश पायलट, आज उनकी जयंती है,

सालों पहले दिल्ली के पॉश 112, गुरुद्वारा रकाबगंज रोड की एक कोठी के आउट हाउज़ में एक दस साल का लड़का रहा करता था। गर्मी हो या जाड़ा या बरसात, वो रोज़ सुबह चार बजे उठता, अपने चचेरे भाई नत्थी सिंह की डेरी के मवेशियों को चारा खिलाता, उनका गोबर साफ़ करता, दूध दुहता और फिर दिल्ली के वीआईपी इलाके की कोठियों में दूध पहुंचाता।

कभी कभी इतना जाड़ा पड़ता कि वो गर्मी पाने के लिए भैंसों की बग़ल में उनसे चिपक कर सो जाता। उसका नाम था राजेश्वर प्रसाद बिधूरी जो बाद में राजेश पायलट के नाम से मशहूर हुआ।
राजेश पायलट की पत्नी और उनकी जीवनी “राजेश पायलट-अ बायोग्राफ़ी” लिखने वाली रमा पायलट बताती हैं, “उन्हीं कोठियों में जब माली घास काटते थे, तो राजेश भैंसों के लिए बोरी में भर भर कर घास भी लाया करते थे।”उन्होंने कहा, “एक दिन हमारी कोठी में कुछ माली घास काट कर बोरियों में भर रहे थे और उसे डालने के लिए बहुत ज़ोर लगा रहे थे। मैंने राजेश से कहा, देखो इन्हें किताना लालच आ रहा है! राजेश बोले मैं भी जब इन कोठियों में दूध देने आता था, तो मैं भी यही किया करता था। मैं तो कभी कभी बोरी पर सीधा खड़ा हो जाता था, ताकि वो नीचे दब जाए और उसमें अधिक से अधिक घास आ सके।”

दूध बेचने के साथ साथ राजेश्वर प्रसाद मंदिर मार्ग के म्यूनिसिपिल बोर्ड स्कूल में पढ़ाई भी कर रहे थे। उस स्कूल में उन्हीं की कक्षा में पढ़ने वाले और ताउम्र उनके दोस्त रहे रमेश कौल बताते हैं, “आपको जान कर ताज्जुब होगा कि उस ज़माने में ये म्यूनिसिपिल स्कूल इंग्लिश मीडियम स्कूल हुआ करता था। हम लोग कक्षा 8 में एक ही सेक्शन में पढ़ते थे, इसलिए काफ़ी अच्छे दोस्त हो गए थे। वो एक सरकारी कोठी के पीछे के क्वार्टर में रहा करते थे। वो वहाँ से पैदल स्कूल आते थे।”
वो कहते हैं, “इनकी आर्थिक स्थिति काफ़ी कमज़ोर हुआ करती थी। इधर उधर से लोगों से कपड़े ले कर पहना करते थे। इसी दौरान वो एनसीसी में शामिल हो गए, क्योंकि वहाँ पहनने के लिए यूनिफ़ॉर्म मिलती थी। लेकिन स्कूल में जो भी गतिविधियाँ होती थीं, उनमें वो बढ़चढ़ कर भाग लिया करते थे।”

दिलचस्प बात ये है कि स्कूली पढ़ाई ख़त्म होने के बाद राजेश्वर प्रसाद और रमेश कौल के बीच संपर्क ख़त्म हो गया। सालों बाद उनकी मुलाकात तब हुई जब उन्होंने साथ साथ भारतीय वायुसेना के लिए क्वालिफ़ाई किया। वहाँ भी अपने करियर की शुरुआत में वो वायुसेनाध्यक्ष बनने के ख़्वाब देखा करते थे।

रमेश कौल बताते हैं, “हमें जहाँ ट्रेनिंग दी जा रही थी, वहाँ एक बार उस समय के वायुसेनाध्यक्ष एयर चीफ़ मार्शल अर्जन सिंह आए। वो हम लोगों के सीने और कंधों पर विंग्स और स्ट्राइप्स लगा रहे थे। राजेश नें कहा, देख लेना एक दिन मैं इस पद पर पहुंचूंगा और मैं भी इनकी तरह लोगों के विंग्स और स्ट्राइप्स लगाउंगा।”

कौल कहते हैं, “वहाँ पर कई वीआईपी अपने विमानों से आया करते थे और राजेश उन्हें देख कर कहा करते थे कि एक दिन तुम लोग भी मुझे इसी तरह रिसीव करोगे।हम लोग उनकी बात सुन कर हंसा करते थे और उसे गंभीरता से नहीं लेते थे।”

1974 में उनकी रमा पायलट से शादी हुई। रमा बताती हैं, “हम लोग अपने हनीमून के लिए नैनीताल गए थे। उन्होंने मुझे बताया था कि उनके पास सिर्फ़ 5000 रुपये हैं। पहले दो दिन हम लोग एक पांच सितारा होटल में रुके, फिर अगले दो दिनों के लिए हम लोग एक तीन सितारा होटल में शिफ़्ट हो गए। हनीमून का अंत आते हम लोग 25 रुपये रात वाले कमरे में रह रहे थे।”

राजेश्वर प्रसाद ने 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध में भाग लिया लेकिन कुछ सालों बाद उन्हें लगने लगा कि अगर उन्हें अपने समाज और परिवेश में बदलाव लाना है, तो उन्हें राजनीति में उतरना होगा। तभी 1980 के लोकसभा चुनाव आ गए और उन्होंने मन बनाया कि वो वायुसेना छोड़ कर लोकसभा का चुनाव लड़ें।

रमा पायलट याद करती हैं, “पहले तो वायु सेना राजेश का इस्तीफ़ा ही नहीं स्वीकार कर रही थी। फिर हम लोग बेगम आबिदा के पति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद के पास गए जो उस समय भारत के राष्ट्रपति और सेना के सर्वोच्च सेनापति थे. उनके मन में पता नहीं क्या आया कि उन्होंने राजेश की अर्ज़ी पर लिख दिया कि उन्हें वायुसेना छोड़ने की इजाज़त दी जाए।”

रमा कहती हैं, “इसके बाद राजेश सीधे इंदिरा गाँधी के पास जा कर बोले कि वो तत्कालीन प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के ख़िलाफ़ बागपत से चुनाव लड़ना चाहते हैं. वो उस समय 12, विलिंगटन क्रेसेंट में रहा करती थीं. इंदिरा गाँधी ने कहा कि मैं आपको सलाह नहीं दूंगी कि आप राजनीति में आए. आप वायुसेना से इस्तीफ़ा न दें, क्योंकि वहाँ आपका भविष्य उज्जवल है.”
उन्होंने बताया, “राजेश ने कहा कि मैं इस्तीफ़ा पहले ही दे चुका हूँ. मैं तो आपका आशीर्वाद लेने आया हूँ. फिर इंदिरा बोलीं कि बागपत एक मुश्किल क्षेत्र है. वहाँ चुनाव के दौरान बहुत हिंसा होती हैं. राजेश ने जवाब दिया, मैडम, मैंने हवाई जहाज़ से बम गिराए हैं. क्या मैं लाठियों का सामना नहीं कर सकता? इंदिरा गाँधी ने उस समय उनसे कोई वादा नहीं किया.”

कांग्रेस (आई) की शुरू की लिस्ट में राजेश्वर प्रसाद का नाम नदारत था. एक दिन इंदिरा गाँधी चुनाव प्रचार के लिए हैदराबाद जा रही थी. राजेश्वर प्रसाद और उनकी पत्नी रमा ने तय किया कि वो उन्हें छोड़ने हवाई अड्डे जाएंगे.

रमा पायलट बताती हैं, “हम घर पर सब को सोता छोड़ कर सुबह पांच बजे सफ़दरजंग हवाई अड्डे जा पहुंचे. मैं सबसे आखिर में खड़ी थीं. मुझे देखते ही उन्होंने बहुत अर्थपूर्ण मुद्रा में हूँ कहा. इसके बाद वो हैदराबाद चली गईं.”

उन्होंने कहा, “हम लोग अपने घर आ गए. राजेश किसी काम से बाहर गए हुए थे. तभी हमारे फ़ोन की घंटी बजी. दूसरे छोर पर व्यक्ति ने कहा राजेश्वर प्रसाद हैं? मैंने मना कर दिया. फिर उसने पूछा क्या उनकी पत्नी हैं? मैंने झूठ बोला कि वो भी नहीं हैं. फिर उस व्यक्ति ने पूछा, आप कौन बोल रही हैं? मैंने जवाब दिया कि मैं उनकी रिश्तेदार हूँ. उन्होंने कहा आप हमारा एक संदेश राजेश्वरजी तक पहुंचा देंगे? जब मैंने हाँ कहा तो उन्होंने कहा कि उनसे कहिएगा कि उन्हें संजय गाँधी ने बुलाया है.”

रमा पायलट आगे बताती हैं, “मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगा और मैं बहुत बेसब्री से राजेश का इंतज़ार करने लगी. मैं बार बार उन्हें देखने के लिए दरवाज़े तक जा रही थी. जैसे ही उनका स्कूटर रुका, मैंने जाकर कहा, स्कूटर ऑफ़ मत करो. सीधे चलो, संजयजी ने बुलाया है.”

रमा ने कहा, “जब हम कांग्रेस दफ़्तर पहुंचे तो संजयजी ने बताया कि आपके लिए इंदिराजी का संदेश है कि आपको भरतपुर से चुनाव लड़ना है. हम लोगों ने तब तक भरतपुर का नाम तक नहीं सुना था. हमारी उनसे पूछने की हिम्मत भी नहीं पड़ी. ख़ैर पता चला कि भरतपुर राजस्थान में है. मैंने इनसे कहा कि अब यहाँ मत रुको. सीधे भरतपुर जाओ, क्योंकि टिकट तो पीसीसी ही देगी.”
उन्होंने कहा, “उस समय जगन्नाथ पहाड़िया राजस्थान प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे. वो वहाँ से अपनी पत्नी को लड़ाना चाहते थे. भरतपुर में स्थानीय लोग चाह रहे थे कि चुनाव चिन्ह मिलने का समय निकल जाए, ताकि वो अपनी पसंद के उम्मीदवार को वहाँ से लड़वा सकें. लेकिन ये होशियार बंदे थे. इन्हें सारी बात समझ में आ गई.”

जब राजेश्वर प्रसाद भरत पुर पहुंचे तो वहाँ लोगों ने उन्हें पहचानने से इंकार कर दिया. उन्होंने कहा कि हमें तो कहा गया है कि कोई पायलट पर्चा दाखिल करने आ रहा है.रमा पायलट याद करती हैं, “इन्होंने बहुत समझाने की कोशिश की कि वो ही पायलट हैं, लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं सुनी. तभी संजय गाँधी की इनके पास फ़ोन आया. उन्होंने कहा कि सबसे पहले कचहरी जाओ और अपना नाम राजेश्वर प्रसाद से बदलवा कर राजेश पायलट करवाओ. वो तुरंत कचहरी गए और हलफ़नामा दे कर अपना नाम बदलवाया.”

वो बोलीं, “फिर संजय गाँधी ने स्थानीय नेताओं से कहा कि ये जो शख़्स आपके यहाँ पर्चा दाख़िल करने आए हैं, यही राजेश पायलट हैं. इतना सुनना था कि सभी लोग राजेश पायलट की जीत के लिए जीजान से लग गए. हम सबने दबा कर मेहनत की उनकी जीत के लिए.”

लेकिन चुनाव प्रचार के लिए पैसे जमा करने में पायलट दंपत्ति को एड़ी चोटी का ज़ोर लगाना पड़ा. कांग्रेस के तत्कालीन कोषाध्यक्ष सीताराम केसरी बहुत मुश्किल से उन्हें बहुत मामूली रकम देने के लिए तैयार हुए.

रमा पायलट बताती हैं, “आनंद लोक जहाँ हम रहा करते थे, कांग्रेस के मुख्यालय 24, अकबर रोड से काफ़ी दूर होता था. वहाँ से अकबर रोड के लिए कोई बस भी नहीं आती थी. ऑटो से 15 रुपये आने के और 15 रुपये जाने के लगते थे. मैं उनके पास रोज़ जाती थी और वो मुझे टरका देते थे. जब मैं उनसे पैसे मांगती तो वो कहते, कहाँ है हमारे पास पैसा पार्टी सत्ता में नहीं है. हम तो लोगों से पैसे ले रहे हैं. मैंने कहा आप के पास जो पैसे लेने आ रहे है, उन्हें तो आप पैसे दे रहे हैं, लेकिन केसरी पर इसका कोई असर नहीं हुआ.”

उन्होंने कहा, “एक दिन तो मैं आनंदलोक से अकबर रोड पाँच बार गई. खीज़ में वो बोले, देखिए हमारे पास सिर्फ़ दस हज़ार रुपये हैं. इन्हीं से काम चलाइए. यहाँ तक कि उन्होंने एक काग़ज़ पर रसीदी टिकट लगा कर मुझसे दस्तख़त कराए, तब जा कर उन्होंने वो छोटी सी रकम मेरे हवाले की.”

सांसद बनने के बाद उन्होंने तुरंत कांग्रेस नेतृत्व का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा. जब 1984 में राजीव गाँधी प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने उन्हें भूतल राज्यमंत्री बनाया. उनके शुरू के ही तेवर से लग गया कि राजेश पायलट एक स्टीरियो टाइप राजनेता नहीं हैं.

उनके निजी सचिव रहे और बाद में इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक बने आरएस बुटोला बताते हैं, “जब पायलट साहब भूतल यातायात मंत्रालय में थे तो एक बार डीटीसी के कर्मचारियों ने चक्काजाम कर हड़ताल पर जाने की योजना बनाई. पायलट साहब ने इस हड़ताल से दिल्ली के लोगों को असुविधा से बचाने के लिए एक उच्चस्तरीय बैठक बुलाई. उन्होंने डीटीसी के चेयरमैन से पूछा कि इस हड़ताल से निपटने के लिए आपकी क्या योजनाएं हैं?”

बुटोला कहते हैं, “उन्होंने जवाब दिया कि हमने पिछली हड़तालों का अध्ययन किया है. हर बार इस तरह की हड़ताल में डीटीसी की संपत्ति का बहुत नुकसान किया जाता है. हमारी प्राथमिकता ये रहेगी कि इस बार हमारी संपत्ति का किसी तरह का कोई नुकसान न हो. उस समय राजेशजी ने एक बात कही जिसे मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ.”

उन्होंने कहा, “पायलट साहब ने उनका नाम ले कर कहा है कि आप को दिल्ली के लोगों को बस पर सफ़र कराने की ज़िम्मेदारी दी गई है, लेकिन आप तो एक सुरक्षा विशेषज्ञ की तरह बात कर रहे हैं. इस मुद्दे पर सलाह देने के लिए पुलिस आयुक्त यहाँ मौजूद हैं. आपका काम दिल्ली के लोगों को बसें उपलब्ध कराना है और आप संपत्ति को बचाने की बात कर रहे हैं. हमें ये बैठक रद्द कर देनी चाहिए, क्योंकि आप शायद इस बैठक के लिए पूरी तैयारी नहीं करके आए हैं. उन्होंने ये बैठक रद्द कर दी.”

उत्तरपूर्व और कश्मीर दोनों राजेश पायलट के बहुत प्रिय विषय थे. कश्मीर में सामान्य स्थिति लाने के लिए उन्होंने अपनी तरफ़ से काफ़ी कोशिश की, हाँलाकि वहाँ उन पर कई हमले भी हुए.

उनके नज़दीकी दोस्त रहे रमेश कौल बताते हैं, “मेरे पास आ कर लोग बताते थे कि कश्मीर में अगर कोई सुनता है तो इनकी सुनता है. इंटेलिजेंस ब्यूरो से इनपुट मिलने के बाद नरसिम्हा राव ने उन्हें कश्मीर का इंचार्ज बनाया था. उस समय वो कूपवारा वगैरह में सभाएं किया करते थे, जब वहाँ कोई बाहर निकलने के बारे में सोच भी नहीं सकता था. तीन बार इनपर चरमपंथियों ने हमला किया. लेकिन मानना पड़ेगा कि उनके स्थानीय ड्राइवरों ने अपनी जान पर खेल कर उन्हें बचाया.”

कौल कहते हैं, “एक बार वो सोपोर गए. उस समय वहाँ मिलिटेंसी चरम पर थी. सोपोर के बाहर एक पुल होता है. वहाँ एक बार हमारी मोटरों का काफ़िला पहुंचा तो वो काफ़िला रोक कर लोगों से बाते करने लगे. डीजीपी ने मुझसे कहा कि किसी भी तरह उन्हें कार के अंदर करिए, क्योंकि कार बुलेटप्रूफ़ है. उस समय सोपोर का माहौल इतना ख़राब था कि वहाँ के स्थानीय लोगों ने उन्हें वार्न किया कि वो सोपोर का पुल पार न करें. वो अकेले राजनेता थे जो कश्मीर के चप्पे चप्पे पर गए.”

कौल ने कहा, “फ़ारूख़ साहब के कश्मीर छोड़ने के बाद वो अपने साथ उन्हें जहाज़ पर कश्मीर ले कर गए और उन्हें सलाह दी कि वो लोगों से मिले. एक बार मैसम बहुत ख़राब था. जहाज़ का कैप्टन मेरे पास आया कि क्या करें. पायलट साहब ने उन्हें सलाह दी कि ख़राब मौसम के ऊपर से जहाज़ को उड़ा कर ले जाएं. वो नहीं चाहते थे कि कश्मीर के लोगों को उनसे न मिल पाने से निराशा हो.”

राजेश पायलट को भारतीय राजनीति में अभी बहुत कुछ करना था लेकिन मात्र 55 वर्ष की आयु में एक सड़क दुर्घटना में उनका असामयिक निधन हो गया. उस समय वो गाड़ी को खुद ड्राइव कर रहे थे.

रमा पायलट कहती हैं, “मुझे आज भी नहीं लगता कि वो मेरे साथ नहीं हैं. मुझे हर समय अपने आसपास उनकी मौजूदगी महसूस होती है. कभी कभी तो मुझे ये लगता है कि वो मुझसे कह रहे हों कि ये करो या ये न करो.”

BBC News हिन्दी और रमा पाइलट द्वारा लिखित उनकी बाइओग्राफ़ी से लिये गये अंशों से 

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