विजय गर्ग 

विटामिन डी एक ऐसा पोषक तत्त्व है, जिसे अक्सर ‘सनशाइन विटामिन ‘ भी कहा जाता है, क्योंकि यह प्राकृतिक रूप से सूर्य की रोशनी से प्राप्त होता है। हमारे शरीर में यह विटामिन हड्डियों को मजबूत कैल्शियम और फास्फोरस के संतुलन को दुनिया बनाने, बनाए रखने तथा प्रतिरक्षा प्रणाली को सुदृढ़ करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हाल के वर्षों में विटामिन डी की कमी एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या के रूप में उभर कर सामने आई है। आधुनिक जीवनशैली, शहरीकरण, प्रदूषण और दफ्तर तथा घर के भीतर लगातार रहने के कारण बहुत से लोगों में विटामिन की कमी हो रही है। यह कमी न केवल शारीरिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डालती है, बल्कि मानसिक और सामाजिक स्तर पर भी इसके दूरगामी प्रभाव देखने को मिलते हैं। सूर्य की किरणें हमारे जीवन का एक अनमोल उपहार हैं, लेकिन आज के समय में लोग कंप्यूटर, मोबाइल और अन्य इलेक्ट्रानिक उपकरणों के साथ इतने व्यस्त हो गए हैं कि वे बाहरी वातावरण में निकलने का समय ही नहीं निकाल पाते। परिणामस्वरूप उन्हें सूर्य की किरणों का लाभ नहीं मिल पाता।

कुछ बड़े शहरों में जहां वातावरण में प्रदूषक कण अधिक मात्रा में होते हैं, वहां सूर्य की किरणें धरती कम पहुंच पाती हैं। इसके अलावा लोग विटामिन डी के प्राकृतिक स्रोतों को समझने और अपनाने में असमर्थ रहते हैं, जिसके कारण उन्हें इस पोषक तत्त्व की कमी होती है। दरअसल, , हमारे शरीर को आवश्यक मात्रा में यह विटामिन प्राप्त करने के लिए सूर्य की रोशनी के साथ-साथ संतुलित आहार भी उतना ही अहम है। कुछ परिस्थितियों में डाक्टर की सलाह पर पूरक के रूप में भी उपयोग किया जाता जाता है, लेकिन यह ध्यान रखना आवश्यक है कि इसकी सही खुराक और सही तरीके से उपयोग ही लाभकारी होता है। आजकल के खानपान में पौष्टिकता की कमी हो गई है। जहां पहले लोग ताजे फल-सब्जियां और प्राकृतिक रूप से उगाए गए खाद्य पदार्थों का सेवन करते थे, वहीं अब ‘फास्ट फूड’ और प्रसंस्कृत खाद्य का चलन ज्यादा ही बढ़ गया है। इन खाद्य पदार्थों में विटामिन डी की प्राकृतिक मात्रा नहीं होती, जिससे शरीर को इस विटामिन की कमी का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा, कुछ लोग आहार में विविधता न होने के कारण आवश्यक पोषक तत्त्वों को संतुलित रूप से नहीं ले पाते, जिसके चलते उनकी सेहत पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस समय समाज में विटामिन डी की कमी के प्रति जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता है। जब लोगों को इस विटामिन की महत्ता का पता चलता है, तो वे अपनी जीवनशैली में आवश्यक बदलाव लाते हैं। यह आवश्यक भी है। मसलन, नियमित रूप से थोड़ी-थोड़ी देर के लिए बाहर निकलना, प्राकृतिक धूप का लाभ उठाना, संतुलित आहार लेना और आवश्यकतानुसार पूरक का सेवन करना इस कमी को दूर करने में सहायक हो सकते हैं।

जब हम इस कमी के सामाजिक और आर्थिक प्रभावों की बात करते हैं, तो हमें यह समझना होगा कि यह केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है। जब बड़ी संख्या में लोग विटामिन डी की कमी से ग्रस्त हो जाते हैं, तो यह स्वास्थ्य सेवा प्रणाली पर अतिरिक्त बोझ डालता है। अस्पतालों में हड्डियों और मांसपेशियों से जुड़ी समस्याओं के इलाज में अधिक खर्च आता है और साथ ही लोगों की कार्य क्षमता में भी कमी आती है, जिससे समाज के आर्थिक ढांचे पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार, विटामिन डी की कमी एक बड़ी समस्या बन चुकी है, जिसके प्रतिकूल प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

इस समस्या से निपटने के लिए व्यक्तिगत प्रयास के साथ-साथ सरकारी नीतियों और सामुदायिक प्रयासों का होना भी जरूरी है। स्वास्थ्य विभागों और सरकारी संस्थाओं द्वारा नियमित स्वास्थ्य जांच, विटामिन डी परीक्षण और पोषक तत्त्व मिलाए गए खाद्य पदार्थों के प्रचार-प्रसार के माध्यम से इस कमी को दूर करने की कोशिश की जा रही है। कई देशों में स्वास्थ्य जागरूकता अभियानों के माध्यम से लोगों को विटामिन डी की महत्ता और इसके स्रोतों के बारे में बताया जा रहा है। स्कूलों, कालेजों और कार्यस्थलों पर भी स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी साझा की जा रही है, ताकि युवा पीढ़ी इस कमी के प्रति सजग रहे। इसके अतिरिक्त, वैज्ञानिक अनुसंधान भी इस दिशा में निरंतर जारी है। अध्ययनों से स्पष्ट है कि इस विटामिन की कमी केवल हड्डियों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका प्रभाव संपूर्ण शरीर की क्रियाओं पर पड़ता है।

आधुनिक जीवनशैली में स्वास्थ्य के प्रति बढ़ती जागरूकता के बावजूद, कई कई लोग अब भी विटामिन डी की महत्ता को समझ नहीं पाए हैं। लोग अपनी दिनचर्या में व्यस्त रहते हैं और स्वास्थ्य की छोटी-छोटी समस्याओं को नजरअंदाज कर देते हैं। मगर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, विटामिन डी की की कमी के लक्षण स्पष्ट हो जाते हैं। बच्चे, युवा और सभी को इस प कमी का सामना करना पड़ता है, पर बुजुगों में यह समस्या अधिक गंभीर हो जाती है। इसके अतिरिक्त, मोटापे वाले लोगों में में यह विटामिन शरीर के वसा ऊतक के में जमा जाता है, जिससे इसकी उपलब्धता और भी कम हो जाती है। विटामिन डी की कमी के समाधान के लिए हमें कई स्तरों पर काम करने की आवश्यकता है। सबसे पहले व्यक्तिगत स्तर पर, हमें अपनी दिनचर्या में छोटे-छोटे बदलाव लाने होंगे। इसके साथ ही सामाजिक स्तर पर भी जागरूकता फैलाने की जरूरत है। सरकार और गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा भी इस दिशा में कई पहल की जा रही है, जैसे विटामिन डी युक्त खाद्य पदार्थों का वितरण, स्वास्थ्य शिविरों का आयोजन और नियमित स्वास्थ्य जांच के कार्यक्रम। इसके अलावा, तकनीकी नवाचार इस कमी को दूर करने में म भूमिका निभा सकते हैं। ‘डिजिटल हेल्थ ऐप्स’ के माध्यम से लोगों को उनके विटामिन डी की जानकारी उपलब्ध कराई जा सकती है, जिससे उन्हें समय रहते पता चल सके कि उन्हें किस प्रकार के सुधार की आवश्यकता है।

“विटामिन डी की कमी की समस्या केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे समाज और अर्थव्यवस्था पर इसका प्रभाव पड़ता है। यदि हम इस कमी को समय रहते पहचान कर उचित कदम नहीं उठाते उठाते हैं, तो , तो भविष्य में और अधिक गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो सकती है हैं। आज जब हम कई बीमारियों और संक्रमणों से लड़ रहे हैं, तब यह आवश्यक है कि अपने शरीर के मूल पोषक तत्त्वों को नजरअंदाज न करें। विटामिन डी की कमी से निपटने के लिए हमें न केवल अपनी जीवनशैली में सुधार करना होगा, बल्कि सामाजिक स्तर पर भी जागरूकता फैलानी होगी। यह जरूरी है कि हम अपने दैनिक जीवन में स्वास्थ्य संबंधी प्राथमिकताओं को ऊपर रखें और विटामिन डी के खोत का पूरा लाभ उठाएं। अगर हम समय रहते आवश्यक कदम उठाएंगे, तो निश्चित ही हम स्वस्थ और खुशहाल जीवन की ओर अग्रसर हो पाएंगे।

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब

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