योगेन्द्र यादव

आख़िर लोकतंत्र में तंत्र पर लोक की विजय हुई। जैसे ही टीवी के पर्दे पर चुनाव का रुझान साफ़ होने लगा, वैसे ही बरबस यह वाक्य मेरे मुँह से निकला। पिछले एक हफ़्ते से मैं ख़ुद अपने ही कहे का अर्थ ढूँढने की कोशिश कर रहा हूँ।

चुनाव परिणाम वाले दिन सुबह इसी पन्ने पर मैंने कहा था कि अगर बीजेपी को उसके पिछले आँकड़े यानी ३०३ से एक सीट भी कम आती है उस सरकार की हार मानी जाएगी। अगर सत्ताधारी पार्टी बहुमत के आंकड़े यानी 272 से कम पर रुक जाती है तो इसे बीजेपी की राजनैतिक हार समझना चाहिए। और अगर मेरे आँकलन के अनुरूप बीजेपी का आंकड़ा 250 से नीचे गिर जाता है तो इसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की व्यक्तिगत हार समझना होगा। अंततः बीजेपी महज़ 240 पर अटक गयी। इसमें कोई श़क की गुंजाइश नहीं कि चुनाव का परिणाम पिछली सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव है, बीजेपी के लिए राजनैतिक नरेंद्र मोदी के लिए व्यक्तिगत पराजय हैं।

बेशक़, बीजेपी को प्राप्त वोटों में सिर्फ़ एक फ़ीसदी की कमी हुई है और उसने तटीय प्रदेशों, ख़ासतौर पर ओड़िशा, आँध्र प्रदेश, तेलंगाना और केरला में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है। लेकिन इस चुनाव के परिणामों को केवल आंकड़ों से नहीं समझा जा सकता है। यह कोई समतल मैदान पर दो टीमों से बीच हुई चुनावी दौड़ नहीं थी। अगर सत्ताधारी दल एथलीट वाले जूते पहन स्टेडियम में दौड़ रहा था तो विपक्ष कंटीली झाड़ियों और पत्थरों को पार करते हुए पहाड़ चढ़ने को मजबूर था।अगर ऐसी विषम स्थिति में भी विपक्ष ने सत्ताधारियों से ६३ सीटें छीन उसे बहुमत के आँकड़े के नीचे उतार दिया तो इसे लोकतंत्र का चमत्कार ही कहा जाएगा। पार्टियों से ज़्यादा इसका श्रेय पब्लिक को जाता है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत की जनता ने एक बार फिर सत्ता के अहंकार को चूर किया है, तानाशाही की तरफ़ बढ़ते हुए क़दम एक बार तो ठिठके हैं। सवाल बस इतना है कि इस जनादेश से कहाँ और कितनी उम्मीद लगायी जाए। बेहतर होगा की हम अति उत्साह से परहेज़ करें। यह तो तय है कि इस चुनाव परिणाम ने लोकतांत्रिक सम्भावनाओं का द्वार खोल दिया है।दरवाज़े में घुसने के बाद लोक इस तंत्र की चार बड़ी सीढ़ियों में कितनी पायदान पार कर पाएगा यह अभी से कहना मुश्किल है।

चौथी और सबसे ऊँची सीढ़ी सरकार की नीति की है जहाँ तक पहुँचने की उम्मीद सबसे कम है, लेकिन जिसके बारे में चर्चा सबसे अधिक है। हर कोई यह क़यास लगा रहा है कि गठबंधन सहयोगियों पर निर्भरता के चलते प्रधानमंत्री की कार्यशैली में कुछ बदलाव होगा। प्रधानमंत्री द्वारा अपनी शुरुआती भाषण में भी सर्वानुमति, सर्वपंथ समभाव और संविधान के प्रति आस्था जैसे शब्दों के इस्तेमाल से यह अटकलबाजी और तेज हुई है।। मुझे इसका भरोसा नहीं है। नरेंद्र मोदी को बैकफुट पर खेलने का अभ्यास नहीं है। उलटे यह संभव है कि कमज़ोर सरकार की छवि को तोड़ने के लिए प्रधानमंत्री कुछ आक्रामक क़दम उठाए। यूँ भी चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार से वैचारिक प्रतिबद्धता या राजनीतिक साहस की उम्मीद करना ज़्यादती है। हाँ इतना ज़रूर उम्मीद की जा रही है कि बीजेपी के सहयोगी दल संघीय ढांचे पर चोट करने वाले किसी फ़ैसले या सीधे सीधे अल्पसंख्यकों के अधिकार छीनने वाले किसी बड़े कदम पर ब्रेक लगा सकते हैं।

तीसरी सीढ़ी संस्थाओं की मर्यादा की है जहां दो सूत ज़्यादा उम्मीद की जा सकती है। प्रशासन और सीबीआई या ईडी जैसी संस्थाओं में बेहतरी की उम्मीद करना व्यर्थ होगा क्योंकि यह सब सीधे सरकार के अंगूठे तले दबे हैं। संवैधानिक स्वायत्तता प्राप्त संस्थाओं जैसी केंद्रीय सतर्कता आयोग, सूचना आयोग और चुनाव आयोग से उम्मीद की जा सकती है कि वे सरकार का पक्ष लेते हुए भी अब थोड़ा लोकलाज का ध्यान भी रखेंगे। न्यायपालिका से उम्मीद करनी चाहिए कि संविधान और क़ानून की धुंधली सी पड़ी इबारत कम से कम कुछ जजों को दिखने लगेगी। यह आशा फलीभूत होती है या नहीं, इसका पता आगामी कुछ महीनों में नागरिकता क़ानून संशोधन, चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को चुनौती और इलेक्टोरल बॉण्ड घोटाले की न्यायिक जाँच जैसे मामलों में लग जाएगा। साथ ही यह उम्मीद भी करनी चाहिए कि इस चुनाव में बेशर्मी से बीजेपी के प्रवक्ता की भूमिका में खड़े होकर मुँह की खाने के बाद मुख्यधारा के मीडिया को भी कुछ नसीहत मिली होगी। इतनी उम्मीद तो नहीं है कि टीवी एंकर और अख़बार सरकार की चाटुकारिता बंद कर देंगे, मगर कम से कम इतना तो संभव है कि मीडिया विपक्षी दलों, नेताओं और आंदोलनकारियों पर भेड़िए की तरह हमला करने में परहेज़ करेगा।

दूसरी सीढ़ी पर संसद का नंबर आता है जिसमें कुछ ज़्यादा बदलाव होने की उम्मीद दिखती है। लोक सभा में संख्या का असंतुलन बहुत कम होने के बाद यह उम्मीद की जानी चाहिए कि संसद में बहस हुआ करेगी, कि बिना बहस आनन फ़ानन में क़ानून पास करवाने की रवायत पर रोक लगेगी, अगर संसद में बोलने नहीं दिया तो सांसद बाहर अपना गला खोलेंगे। यह उम्मीद भी की जा सकती है कि पिछले दस साल की तुलना में संसदीय विपक्ष ज़्यादा प्रभावी तरीक़े से मुद्दे उठाएगा, वैकल्पिक प्रस्ताव पेश करेगा और आगामी विधान सभा चुनावों में बीजेपी को पटकनी देने का इंतज़ाम भी करेगा।

पहली और सबसे मज़बूत पायदान पर नम्बर आता है सड़क का, जन आंदोलन और प्रतिरोध का। पिछले दस साल में मोदी सरकार के विपक्ष की भूमिका संसद से ज़्यादा सड़क पर निभाई गई थी। बाक़ी कुछ हो ना हो, एक बात तय है इस चुनावी परिणाम से मोदी सरकार का इक़बाल कम हुआ है, सरकार का ख़ौफ़ और दबदबा घटा है। इसलिए यह तय है चाहे किसान की बात हो या बेरोज़गार युवा की, दलित समाज की चिंता हो या महिला की, आमजन के जीवन से जुड़े सरोकार को सड़क पर उठाने का सिलसिला पहले से और ज़्यादा मज़बूत होगा।अगर संसदीय विपक्ष और सड़क पर चल रहे प्रतिरोधों में जुगलबंदी हो जाए तो यह भी संभव है कि या तो सरकार को जनता के सामने झुकना पड़ेगा, या फिर पाँच साल से पहले ही दुबारा जनता के दरबार में पेश होना पड़ेगा।

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