“सच्चे सेवक में अहंकार नहीं होता, वह दूसरों को कोई चोट पहुंचाए बिना काम करता है।” 

‘जो वास्तविक सेवक है, उसमें अहंकार नहीं आता

संघ और शाह जंग शुरू, मणिपुर को लेकर सवाल 

संघ ने अपने तरकश से चलाया पहला बाण

26/11 हमले को आरएसएस की साजिश बताने वाले को मोदी ने टिकट दिया

अशोक कुमार कौशिक 

जिस बात का खंडन किया जा रहा था, या जिस पर बोलने से इंकार किया जा रहा था, वह बात अब खुल कर सामने आ गई है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भाजपा, भाजपा सरकार और खासकर नरेंद्र मोदी से बेहद खफा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत या कोई बड़ा पदाधिकारी मोदी के शपथ ग्रहण में शामिल नहीं हुआ था। आरएसएस ने इस बार भाजपा के लिए उस तरह जी-जान से चुनाव प्रचार नहीं किया था जैसा वह हर बार करता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत लंबे समय से सार्वजनिक जीवन करीब मौन जैसी स्थिति में थे। चुनाव के तुरंत बाद नागपुर में संघ से ही जुड़े कार्यकर्ता विकास वर्ग द्वितीय के समापन कार्यक्रम में उन्होंने कुछ खरी-खरी बातें की हैं। 

आरएसएस प्रमुख भागवत चुनावों के दौरान करीब शांत रहे, उससे पहले भी उन्होंने देश के हालात या मुद्दों पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दी है। ये संयोग है कि केंद्र में दोबारा बीजेपी की अगुवाई और नरेंद्र मोदी की लीडरशिप में एनडीए की सरकार बनने के बाद उनका इतना दोटूक कहने वाला भाषण सामने आया है। हैरानी इस बात पर भी है कि भागवत तमाम मुद्दों पर बोलते तो रहे हैं लेकिन उनका इतना दो टूक और खरा-खरा भाषण शायद पहली बार सार्वजनिक तौर पर किसी कार्यक्रम में ना केवल दिया गया बल्कि संघ ने उसे अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म में प्रमुखता से जगह भी दी है।

बयानबाजी से बचें और काम करें, चुनाव मोड से निकलें 

प्रत्यक्ष तौर पर देखें तो ऐसा लगता है कि जैसे उन्होंने ये कहा कि चुनाव प्रचार में जिस तरह एक दूसरे को लताड़ने, तकनीक का दुरुपयोग करने के साथ असत्य को प्रसारित करने का जो काम हुआ है, वो ठीक नहीं है।

ऐसा लगता है कि उनकी इस बात के निशाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हैं, जिन पर विपक्ष ने नकारात्मक बयानबाजी करने, वैमनस्य फैलाने और तथ्यों से परे चुनाव प्रचार का आरोप लगाया है तो बीजेपी ने यही बात विपक्षी दलों के लिए कही। दरअसल भागवत अपनी इस बात से सभी को नसीहत दे रहे हैं कि अब चुनाव हो चुका है। चुनावों में आरोप प्रत्यारोप के बाद देश का माहौल तनावपूर्ण हो जाता है। उनके निशाने पर केवल बीजेपी को नहीं समझा जाना चाहिए बल्कि समूचे विपक्ष को भी माना जाना चाहिए।

मणिपुर की बात पर कौन है असल निशाने पर

मणिपुर में जो स्थिति है, वो करीब सालभर से बनी हुई है। वहां तनाव है। इसे लेकर राज्य के मुख्यमंत्री वीरेन सिंह पर सीधे आरोप लगे कि इस जातीय समस्या में एक वर्ग का साथ दे रहे हैं। वहां हो रही व्यापक हिंसा के बाद भी केंद्र को जो कार्रवाई करनी चाहिए, वो उन्होंने नहीं की, इसी वजह से मणिपुर लगातार आग में जल रहा है। भागवत ने अपने भाषण में मणिपुर को लेकर सीधे गृहमंत्री अमित शाह को लपेटा है तो वही अपरोक्ष रुप नरेंद्र मोदी पर शह देने का निशाना लगाया है।

भागवत ने भाषण में कहा कि दस साल पहले मणिपुर अशांत था। फिर पिछले दस सालों तक शांत रहा। वहां का पुराना बंदूक कल्चर खत्म हो चुका था लेकिन फिर वो हिंसा की राह पर चल पड़ा। वो कहते हैं, अचानक जो कलह उपजा या उपजाया गाय, उस पर कौन ध्यान देगा। इस पर प्राथमिकता से विचार करना होगा।

अब सरसंघचालक मोहन भागवत का बयान सामने आ गया है, जिसमें उन्होंने नरेंद्र मोदी का नाम लिए बिना कहा – “सच्चे सेवक में अहंकार नहीं होता और वह दूसरों को कोई चोट पहुंचाए बिना काम करता है।” ‘जो वास्तविक सेवक है, उसमें अहंकार नहीं आता कि मैंने किया’, मोहन भागवत बोले- चुनाव अभियान के दौरान मर्यादा का ख्याल नहीं रखा गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही थे जिन्होंने कहा था कि वह प्रधानमंत्री नहीं प्रधान सेवक हैं। 

संघ को कर दिया दरकिनार 

हर बार चुनावों में बीजेपी समर्थक वोटर पोलिंग बूथ पर पहुंच जाएं, इसकी जिम्मेदारी संघ हमेशा से निभाता आया है। वहीं, इस बार 2024 के चुनावों में स्वयंसेवक एक्टिव नहीं दिखे। सूत्रों की मानें तो चुनावों के पांच चरणों में भी संघ के अलग-अलग स्तर के पदाधिकारियों ने चुनाव को लेकर किसी भी प्रकार की मीटिंग नहीं की। स्वयंसेवकों तक भी मैसेज नहीं गया कि उन्हें क्या काम करना है।

आरएसएस ने अगर अब खुद को बीजेपी से अलग करने का फैसला किया है तो इसकी कोई बहुत बड़ी वजह होगी, जो समय के साथ सामने आ ही जाएगी।

आरएसएस की मैगजीन में भाजपा पर लेख

आरएसएस से संबंधित पत्रिका ऑर्गनाइजर के ताजा अंक में प्रकाशित एक लेख में लोकसभा चुनाव परिणामों का दोष बीजेपी पर मढ़ते हुए कहा गया है, “2024 के आम चुनावों के नतीजे अति आत्मविश्वास वाले बीजेपी कार्यकर्ताओं और कई नेताओं के लिए रियलिटी चेक के रूप में आए हैं। उन्हें इस बात का एहसास नहीं था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 400+ का नारा भाजपा के लिए एक लक्ष्य था और विपक्ष के लिए एक चुनौती थी। लक्ष्य मैदान पर कड़ी मेहनत से हासिल होते हैं, सोशल मीडिया पर पोस्टर और सेल्फी शेयर करने से नहीं। चूंकि, वे अपनी दुनिया में खुश थे, मोदी की आभा से झलकती चमक का आनंद ले रहे थे, वे ज़मीन पर आवाज़ें नहीं सुन रहे थे।”

आरएसएस ने हमेशा भाजपा का समर्थन किया

यह भी देखा गया है कि अतीत में आरएसएस ने हमेशा भाजपा का समर्थन किया है, लेकिन कुछ अवसरों पर वह अन्य दलों को समर्थन देने के मामले में लचीला रहा है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि संघ का मानना ​​था कि इससे उस समय देश को मदद मिलेगी। इसी संदर्भ में आरएसएस ने 1980 में कांग्रेस का समर्थन किया था क्योंकि जनता पार्टी के असफल प्रयोग के कारण उसके अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा था।

राजा अकेला हो गया, यह स्थिति संघ और भाजपा दोनों के ऊपर लागू है। दूसरे शब्दों में यह कहे कि राजा राजा से टकराने को तैयार हैं तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। राजा कभी अपनी लड़ाई खुद नहीं लगता वह प्यादों के आसरे लड़ता है। राजनीति की बिसात पर सियासत की चाले चली जा रही है, जिसकी भी चाले उल्टी पड़ गई फिर राजनीतिक सत्ता का भोग हो नहीं सकता जो सोचा गया हो।

मोहन भागवत के शब्दों को देखिए – “एक सच्चा सेवक काम करते समय मर्यादा बनाए रखता है… जो मर्यादा बनाए रखता है, वह अपना काम करता है, लेकिन अनासक्त रहता है| इसमें कोई अहंकार नहीं है कि मैंने यह किया है| केवल ऐसे व्यक्ति को ही सेवक कहलाने का अधिकार है।”

मोहन भागवत ने संभवत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ ही इशारा करके कहा है कि चुनाव में शिष्टाचार का ध्यान नहीं रखा गया। रविवार को शपथ ग्रहण के बाद अगले दिन जिस समय नई गठबंधन सरकार की पहली कैबिनेट बैठक हो रही थी, ठीक उसी समय मोहन भागवत नागपुर में स्वयंसेवकों के विकास वर्ग के समापन कार्यक्रम में आरएसएस पदाधिकारियों और स्वयंसेवकों को संबोधित कर रहे थे।

चुनावों के दौरान ऐसी कई खबरें आई थीं कि संघ के स्वयंसेवक इस बार भाजपा उम्मीदवारों के लिए पहले जैसी ऊर्जा से काम नहीं कर रहे। ये खबरें कितनी सही थी, कितनी गलत, यह नहीं कहा जा सकता, लेकिन चुनाव नतीजों के बाद इन खबरों को ज्यादा हवा मिली कि यह संघ की नाराजगी का प्रतिफल है कि भाजपा को महाराष्ट्र, कर्नाटक, बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, राजस्थान और हरियाणा में काफी सीटों का नुकसान झेलना पड़ा। सरसंघचालक मोहन भागवत के इन दो वाक्यों ने इसकी पुष्टि ही की है कि संघ कुछ कारणों से भाजपा से नाराज है।

चुनावों के दौरान ऐसी दो बातें हुई थीं, जिनसे संघ की तथाकथित नाराजगी की खबरें बनी थी। पांचवें चरण के बाद संघ की एक मीटिंग हुई थी, जिसमें आगे काम को लेकर बातचीत हुई थी। लोकसभा चुनाव के छटे चरण के बाद एक तो भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का वह बयान था, कि भाजपा संघ पर निर्भर नहीं है, वह सक्षम है, और उसे संघ की जरूरत नहीं है। चुनाव परिणाम ने भाजपा और संघ को आमने-सामने खड़ा कर दिया है।

जेपी नड्डा ने कहा था कि – “हर किसी का अपना काम है, आरएसएस एक सांस्कृतिक संगठन है और भाजपा राजनीतिक संगठन है। शुरुआत में हम कम सक्षम थे और हमें आरएसएस की जरूरत थी। आज हम बड़े हो गए हैं और हम सक्षम हैं, भाजपा खुद को चलाती है, यही अंतर है। दोनों संगठनों में एक दूसरे का बहुत सम्मान है। मीडिया में कुछ लोग आरएसएस और भाजपा संबंधों पर अटकलें लगाना पसंद करते हैं। वे षड्यंत्र के सिद्धांत और मिथक फैलाते हैं।” लेकिन उनके इस कथन को अन्य मीडिया ने उसी तरह तोड़मरोड़ कर पेश किया जैसी नड्डा ने आशंका व्यक्त की थी। नड्डा ने यह कभी नहीं कहा था कि भाजपा को संघ की जरूरत नहीं है।

भाजपा-आरएसएस की बैठक

4 जून को चुनाव परिणाम आए। चुनाव परिणाम में संघ और भाजपा को आमने-सामने खड़ा कर दिया। 5 जून को संघ प्रमुख मोहन भागवत को कहना पड़ा कि यह कैसा चुनाव है जहां संघ को बीच में ले ही लिया गया तो हमारी भी कुछ भूमिका होनी चाहिए। संघ और भाजपा के बीच में समन्वय का काम करने वाले अरुण कुमार, दत्तात्रेय होसबले व सुरेश सोनी (मोदी के गुरु) रहे हैं। असल में सुरेश सोनी ने ही नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचाने का रास्ता बनाया था।

उम्मीदवारों के चयन में भी संघ को किया दूर

संघ के कुछ कार्यकर्ताओं ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि इस बार भाजपा ने उम्मीदवारों के चयन में संघ को दरकिनार कर दिया था। इसके चलते संघ के लोगों में नाराजगी दिखी और जिसका असर नतीजों में देखने को मिला। उन्होंने बताया कि खुलकर किसी ने विरोध तो नहीं किया पर सपोर्ट के लिए भी उतना इफर्ट नहीं दिखाया।

वहीं, भाजपा नेतृत्व ने बीते गुरुवार को अरुण कुमार सहित आरएसएस के वरिष्ठ पदाधिकारियों के साथ बैठक की थी। यह बैठक उस दिन हुई, जब भाजपा नेतृत्व कैबिनेट गठन के लिए एक फार्मूला तैयार करने और और गठबंधन सरकार में साझेदारों की भागीदारी पर बातचीत में उलझा हुआ था।

सरकार गठन को अंतिम रूप देने से पहले भाजपा नेताओं के बीच गहन बातचीत हुई थी। सूत्रों ने बताया कि पार्टी प्रमुख जेपी नड्डा के आवास पर हुई बैठक में आरएसएस नेता, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव (संगठन) बीएल संतोष शामिल हुए थे। वहां पर इन तीनों ने जेपी नड्डा से सीधा सवाल किया कि आपको किसने कहा कि संघ की अब जरूरत नहीं है। आपको स्पष्टीकरण देना होगा। इशारा साफ था। इस पर नड्डा तो खामोस रहे। जिसे पता चलता है कि इस सब के पीछे अमित शाह का दिमाग काम कर रहा था।

सूत्रों ने कहा कि आरएसएस नेताओं के साथ बैठक लोकसभा चुनाव के नतीजे, बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य के संदर्भ में थी। संघ इस बात से भी नाखुश है कि अमित शाह सहित अनेक मंत्रियों को पुराने विभाग दोबारा दिए गए हैं।

यह बिलकुल वैसा ही हो गया, जैसे करीब 30 साल पहले दिल्ली के एक हिन्दी दैनिक में छपे एक लेख ने गोविन्दाचार्य की ओर से अंग्रेजी में कहे गए एक शब्द का हिन्दी रूपान्तर ऐसा कर दिया था कि अटल बिहारी वाजपेयी बुरा मान गए थे। एक विदेशी प्रतिनिधिमंडल भाजपा मुख्यालय में पार्टी महासचिव गोविन्दाचार्य से मिलने आया था।

बातचीत में प्रतिनिधिमंडल के सदस्य ने पूछा कि आप कांग्रेस का विकल्प कैसे बन सकते हैं, जबकि आपके नेता लालकृष्ण आडवानी कट्टर हिंदूवादी नेता के तौर पर माने जाते हैं। तो गोविंदाचार्य ने कहा था कि ” “अवर फेस इज ए वेरी लिबरल अटल बिहारी वाजपेयी”। यानी पार्टी का चेहरा बहुत ही उदारवादी अटल बिहारी वाजपेयी हैं, लेकिन लेख में चेहरे की जगह अटल बिहारी वाजपेयी को मुखौटा लिखा गया था। लेकिन मीडिया की ओर से फैलाई गई झूठी खबर का संघ स्वयंसेवकों पर असर नहीं पड़ा होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मणिपुर नहीं गए थे। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने मणिपुर में दो समुदायों के बीच हुई हिंसा पर भी बोला। विपक्ष ने चुनावों में आरोप लगाया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जानबूझ कर मणिपुर की अनदेखी की। मणिपुर का जिक्र करते हुए मोहन भागवत ने कहा, “हर जगह सामाजिक वैमनस्य है, यह अच्छा नहीं है| पिछले एक साल से मणिपुर शांति का इंतजार कर रहा है। पिछले एक दशक से यह शांतिपूर्ण था| ऐसा प्रतीत होता था कि पुराने समय की बंदूक संस्कृति ख़त्म हो गई थी, लेकिन बंदूक संस्कृति अचानक फिर उभर आई, या उभारी गई।”

भागवत ने एक तरह से सरकार पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए कहा कि “मणिपुर आज भी जल रहा है, इस पर कौन ध्यान देगा? इससे प्राथमिकता से निपटना सरकार का कर्तव्य है।” तो एक तरह से उन्होंने कहा कि पिछले सात आठ महीनों से सरकार अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर रही है।

एक और घटना थी, जिस कारण संघ की नाराजगी की अवधारणा को बल मिला। वह घटना यह थी कि भाजपा ने उस कृपाशंकर सिंह को भाजपा में प्रवेश और उत्तर प्रदेश की जौनपुर सीट से लोकसभा का टिकट दे दिया था, जिसने मुम्बई में हुए 26/11 के आतंकी हमले को आरएसएस की साजिश बताया था।

कांग्रेस के कई नेताओं, वामपंथी बुद्धिजीवियों और मुस्लिम कट्टरपंथियों ने यह नेरेटिव बनाने की कोशिश की थी कि मुम्बई के हमले में पाकिस्तान का हाथ नहीं है। राष्ट्रीय सहारा के उर्दू अखबार रोजनामा राष्ट्रीय सहारा के संपादक अज़ीज़ बर्नी ने इस पर किताब लिख दी थी, जिसका शीर्षक था- “आरएसएस की साजिश 26/11″।

मुम्बई में इस किताब का विमोचन कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह, उस समय मुम्बई कांग्रेस के अध्यक्ष कृपाशंकर सिंह, महेश भट्ट और जमियत उलेमा ए हिन्द के अध्यक्ष महमूद मदनी ने मिल कर किया था। जनवरी 2011 में अज़ीज़ ने अपनी मनगढ़ंत किताब के लिए आरएसएस से माफी मांग ली थी। लेकिन भाजपा ने उसी कृपा शंकर सिंह को भाजपा में प्रवेश दे दिया, जिसने आरएसएस के खिलाफ झूठा नेरेटिव गढने वाली किताब का विमोचन किया था।

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत चुनावों में इस्तेमाल की गई भाषा और विपक्ष की ओर से बिना वजह आरएसएस को घसीटे जाने से भी क्षुब्ध दिखाई दिए, जब उन्होंने कहा कि चुनावों को एक प्रतियोगिता के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि युद्ध के रूप में। “जिस तरह की बातें कही गईं, जिस तरह से दोनों पक्षों ने एक-दूसरे को आड़े हाथों लिया… जिस तरह से किसी ने भी इस बात की परवाह नहीं की कि किस वजह से सामाजिक विभाजन पैदा हो रहा है।…और बिना किसी कारण संघ को इसमें घसीटा गया…तकनीक का इस्तेमाल कर झूठ फैलाया गया। क्या ज्ञान का उपयोग इसी तरह किया जाना चाहिए? ऐसे कैसे चलेगा देश?”

फिर बिना नरेंद्र मोदी या भाजपा के अन्य नेताओं का नाम लिए मोहन भागवत ने कहा कि वह विपक्ष को विरोध पक्ष नहीं कहते, वह इसे प्रतिपक्ष कहते हैं और प्रतिपक्ष विरोधी नहीं होता, प्रतिपक्ष भी एक पक्ष को उजागर कर रहा है और इस पर विचार-विमर्श किया जाना चाहिए। भागवत ने कहा कि “हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। दोनों पहलुओं की जानकारी लेकर ही निर्णय लेने की हमारी परम्परा रही है।”

तो कुल मिलाकर ये जरूर लग सकता है कि भागवत के निशाने पर मोदी, अमित शाह व भाजपा है लेकिन वास्तव ऐसा लगता नहीं। बल्कि वह अगर सत्ता पक्ष को कुछ संभलने की ताकीद कर रहे हैं तो विपक्ष को भी बेहतर होने की सलाह दे रहे हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!