हालांकि ऐसा बंदी रहता है मतदाता, चुनाव लड़ने पर पूर्णतया प्रतिबंध नहीं — एडवोकेट

चंडीगढ़ —  वर्ष 2023  में  सुप्रीम कोर्ट के  तीन जज बेंच जिसमें भारत के मुख्य न्यायधीश (सीजेआई) डी.वाई.चंद्रचूड़, जस्टिस पी.एस.नरसिम्हा और जस्टिस जे.बी. पारदीवाला शामिल थे, ने उस जनहित  याचिका पर सुनवाई  एवं विचार करने से इन्कार कर दिया जिसमें लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम (आर.पी. एक्ट), 1951 की मोजूदा धारा 62(5) को चुनौती दी गयी थी जिसके अनुसार  जेल/कारवास में बंद कैदियों (बंदियों) और पुलिस की वैध कस्टडी (हिरासत) में भेजे गए व्यक्ति चुनाव में मतदान ही नहीं कर सकता है.  

इसी  बीच पंजाब एवं हरियाणा  हाई कोर्ट में  एडवोकेट हेमंत कुमार ने बताया कि इसस सर्वप्रथम   जनवरी, 1983 में सुप्रीम कोर्ट के दो जज बेंच ने और उसके बाद जुलाई, 1997 में सुप्रीम कोर्ट के तीन जज बेंच ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की उपरोक्त धारा 62(5) को कानूनन वैध घोषित किया था.  

बहरहाल, मौजूदा चुनाव सम्बन्धी कानूनी प्रावधानों   के बारे में जानकारी देते हुए हेमंत ने  बताया कि हमारे देश में चुनावों  में मतदान करने का अधिकार संवैधानिक अर्थात  मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राईट) नहीं है बल्कि कानूनी अधिकार (लीगल राइट) है जिस पर संसद द्वारा   चुनावी  कानून द्वारा उचित नियंत्रण लगाया जा सकता है.

वर्तमान में लागू कानूनी प्रावधानों के अनुसार   न केवल वह  व्यक्ति  जिसे  कोर्ट द्वारा किसी केस में ट्रायल ( कानूनन विचारण प्रक्रिया)  के बाद   दोषी (अपराधी ) घोषित कर कारावास (जेल ) का दंड दिया  गया हो बल्कि  आरोपी व्यक्ति  (अभियुक्त) भी जिसे कोर्ट द्वारा   पुलिस कस्टडी (रिमांड) या न्यायिक हिरासत (जेल)  में भेजा गया हो,  उसे भी चुनावों में वोट डालने का अधिकार  नहीं है.  हालांकि जिन व्यक्ति को किसी  उपयुक्त  कानून के अंतर्गत  प्रिवेंटिव डिटेंशन (निवारक निरोध / नज़रबंद) किया गया हो, उस पर वोट न डाल सकने  का ऐसा कानूनी प्रतिबन्ध लागू नहीं होता है.  

हेमंत ने आगे बताया कि हालांकि   हर अभियुक्त व्यक्ति उन चुनावों में  उम्मीदवार के तौर चुनाव लड़ सकता है चाहे उस पर कितने ही  गंभीर केस में एफ.आई.आर./प्राथमिकी  दर्ज हुई  हो या उसके विरूद्ध कोर्ट में चार्ज-शीट सौंप दी  गयी  हो  या  बेशक कोर्ट में उसके विरूद्ध  ट्रायल चल  रहा हो.

 मौजूदा कानूनी प्रावधानों के तहत अगर कोई व्यक्ति विचाराधीन (अभियुक्त)  है  और इस कारण  न्यायिक हिरासत या पुलिस कस्टडी में हैं, तो उसे वोट डालने का अधिकार तो  नहीं होता परन्तु वह उम्मीदवार के तौर चुनाव लड़ सकता है. हेमंत ने बताया की जुलाई, 2013 में हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2004 में पटना हाई कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले को सही ठहराते हुए   यह फैसला दिया कि जब कोई व्यक्ति विचाराधीन कैदी के तौर पर  जेल या पुलिस हिरासत में होने के कारण वोट देने के अधिकार से वंचित है, तो इस कारण वह चुनाव लड़ने के लिए भी अयोग्य होगा परन्तु  तब केंद्र में सत्तासीन मनमोहन सिंह  के नेतृत्व वाली यूपीए-2  सरकार ने संसद द्वारा एक संशोधन कानून पास करवा उक्त सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश को पलट  दिया था.  

हालांकि हेमंत ने बताया कि जहाँ तक कोर्ट द्वारा दोषी घोषित किये गए व्यक्ति के चुनाव लड़ने का विषय है, तो उसके चुनाव लड़ने की योग्यता लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की  धारा 8 पर निर्भर करती है अर्थात  उसको कोर्ट द्वारा किस कानून के तहत और कितने वर्ष का दंड (जुर्माना और  कारवास)  दिया गया है.

मसलन अगर उस व्यक्ति को भ्रष्टाचार निवारण  अधिनियम (पीसी ) एक्ट, 1988  में दोषी घोषित कर बेशक केवल  जुर्माने का दंड दिया गया है, फिर भी वह छ: वर्षो तक कोई चुनाव नहीं लड़ सकता है. हालांकि उपरोक्त  धारा 8 में शामिल किये गए  अपराधिक कानूनों के  अतिरिक्त अगर किसी अन्य कानून में   उस व्यक्ति को कोर्ट द्वारा दोषी घोषित  कर दो वर्ष से कम अवधि की जेल की सजा होती है, तो उसके चुनाव लड़ने पर कोई कानूनी प्रतिबन्ध नहीं है.

 जहाँ तक  हरियाणा  के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला और उनके बड़े पुत्र अजय सिंह चौटाला का विषय है,  जिन्हे जे.बी.टी. टीचर भर्ती घोटाले में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 एवं आई.पी.सी. की कुछ धाराओं के तहत दोषी घोषित करने के बाद जनवरी, 2013 से दस वर्ष की जेल की सजा दी गयी थी, जिसके बाद ओपी चौटाला जुलाई, 2021  में और अजय चौटाला  फरवरी,2022  में समयपूर्व अपनी सजा काटकर रिहा हो  गए, वह दोनों क्रमश: जुलाई, 2027  एवं फरवरी, 2028 तक कोई चुनाव नहीं लड़ सकते हैं हालांकि हेमंत ने बताया कि अगर भारतीय चुनाव आयोग चाहे तो उक्त दोनों की  चुनाव लड़ने की  उपरोक्त  अयोग्यता अवधि को कम या तत्काल प्रभाव से समाप्त भी  कर सकता है.

error: Content is protected !!