पूजा गुप्ता भारत ऐसा देश है जहांँ सड़कों पर जिल्लत का जीवन बिताने वाले बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा है। यह बच्चे स्कूल जाने की उम्र में स्टेशन पर भीख मांगते हैं या जूता पॉलिश करते मिलेंगे। ऐसे बच्चों की संख्या लगभग आठ करोड़ है ऐसे बच्चें एयर कंडीशन गाड़ियों को धोते हुए, पसीने में लथपथ चौराहे पर टिशू नैपकिन बेचने वाले, अपार्टमेंट में झाड़ू पोछा, बर्तन साफ करने वाले ऐसे हजारों की तादाद में मौजूद है। आजादी के इतने साल बीत गए लेकिन अभी तक ऐसे बच्चों का हम कोई भविष्य तय नहीं कर पाए हैं जो फुटपाथ में पड़े होते हैं और इनके लिए कोई योजनायें नहीं बनाई गई है और यदि कोई योजनायें तैयार की जाती है तो उसकी फाइलें कहीं ना कहीं धूल खाती मिलेगी और फंड के निवाले किसी और के गले में उतर जाते हैं। सड़क के बच्चों के लिए यूनेस्को और वर्ल्ड बैंक जैसी संस्था द्वारा करोड़ों रुपए का अनुदान बच्चों के विकास और कल्याणकारी योजनाओं के लिए दिया जाता है ईन करोड़ों रुपए के अनुदान का कितने प्रतिशत इन बच्चों पर खर्च होता है कोई नहीं जानता और अनुदान का पैसा कहा जाता है? यह तथ्य किसी से नहीं छुपा है! सड़क पर पल रहे इन बच्चों को अपना पेट पालने के लिए खुद की मशक्कत करनी पड़ती है उनका और कई तरह से भी शोषण होता है। ऐसे हालातों के शिकार इन बच्चों के लिए किसी भी दिवस के क्या मायने हैं? दिवस और आयोजन तो उनके लिए होते हैं जिनका पेट भरा होता है जिन्हें भावनात्मक सुरक्षा और घर परिवार का प्यार मिल रहा है तब क्या कोई जरूरत रह जाती है? बाल दिवस समारोह जैसे किसी भी आयोजन की आज के जितने भी सामाजिक समारोह और घोषणाएँ की जाती है औपचारिकता बनकर रह जाती है। महापुरुषों और उनके आदर्शों बस अपनों को याद तो लोग कर लेते हैं फिर अगले दिन उन्हें भूल जाते हैं लेकिन एक दिन भी ऐसा नहीं होता है जहांँ परिस्थितियों पर विचार सोचनीय हो। कुछ समस्याओं के समाधान बड़ी मुश्किल और लंबे होते हैं लेकिन इसी कारण हमें आशावादी दृष्टिकोण और प्रयास करना तो नहीं छोड़ सकते! एक उम्मीद की किरण तो रखनी चाहिए। फटे मैले कुचेले कपड़ो पर बसों और ट्रेनों में यह बच्चे गाना गाते हुए बेसुरी आवाज में अपने हाथों में पत्थर के दो टुकड़ों को बड़ी कुशलता से बजाते हुए सफर करते हुए लोगों से पैसा मांगना शुरू कर देते हैं, जितने भी यात्री बैठे होते हैं उनमें से कई लोग उन्हें पैसा भी नहीं देते हैं केवल मनोरंजन मात्र का पुतला समझकर उसे सांत्वना में वाही वाही देते हैं। ये वह बच्चे होते हैं जिनके पास अपने खुद के मकान नहीं होते यह कहीं ना कहीं रास्तों पर झुग्गी झोपड़ी बनाकर चूल्हे की आग में कच्चा पक्का खाना बनाकर जिसमें आधा खाना ही होता है कभी रोटियां नदारद, तो कभी सब्जी! भीख मांग कर इन्हें जो अन्न प्राप्त होता है इससे वह गुजर-बसर करते हैं। ठंड के दिनों में कड़कड़ाती हुई रात में इन्हें तन ढकने के लिए कपड़े भी नहीं मिलते। कहांँ इनका भविष्य जा रहा है? क्यों नहीं सोचा जाता है इनके बारे में? आखिर कहांँ जाता है इनकी सुरक्षा पर दिया गया पैसा? क्या फुटपाथ पर गुब्बारे बेचते बचपन को कभी खुद को गुब्बारों से खेलना नसीब हो पाएगा? क्या कभी हम इस जिम्मेदारी को अपना समझेंगे? क्या कभी इनसे जुड़े सवाल सिर्फ किसी एक दिन तक सीमित होने की बजाय एक व्यापक प्रयास बन पाएंगे? और क्या हम और आप इन सवालों के सार्थक जवाब ढूंढ पाएंगे? कई संस्थायें ऐसी है जहांँ बच्चों के लिए गंभीरता से काम तो कर रही होती है इनके प्रयास भी बेशक सराहनीय है। यूनिसिटी भारत में फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों के लिए कई कार्यक्रम चलाता है बच्चों का यौन शोषण और उसके ऊपर होने वाले अपराधों को रोकने की योजना इसमें मुख्य है सारे कार्यक्रम ठीक से लागू किए जा रहे हैं कि नहीं इन पर मानवाधिकार आयोग भी नजर रखता है। कानून सरकार तो काम कर ही रहे अगर यह योजनायें ठीक से लागू हो तो काफी हद तक इन बच्चों का हित हो सकता है लेकिन इन सबके साथ एक दायित्व जनता का भी है आप इस समाज का हिस्सा है और आपकी समाज के प्रति कुछ जिम्मेदारी भी बनती है। आपके द्वारा किया गया एक छोटा सा प्रयास बच्चों के भविष्य को उजालों से भर सकता है। यदि आप समर्थ हैं तो किसी बच्चे की पढ़ाई का खर्च उठा सके, सर्द रात में ठिठुरते किसी बच्चे को कपड़े दे सके तो अपना योगदान जरूर दें। चाहे व्यक्तिगत रूप से या किसी संस्था के माध्यम से। केवल सरकार को कोसते रहने से और उम्मीदें लगायें कि आपको दूसरे देशों से भीख मिले क्यों ना अपने देश में सड़को पर जीवन बिता रहे इन बच्चों के लिए कुछ करें! क्यों ना छोटे-छोटे ही सही कुछ प्रयास हम और आप ही करें ताकि यह बच्चे भी मना सके सारे त्यौहार! यह भी मुस्कुरा सके इनके हाथों में किताबें हो और ये गर्व से कह पाए कि “सारा आसमान हमारा है और हम इस देश की किस्मत है।” Post navigation बात यहां तक पहुंची ,,,,,, अयोग्य सांसद : डिसक्वालिफाइड डेमोक्रेसी ? जान के दुश्मन बनते आवारा कुत्ते