विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान में श्रीमद्भगवद्गीता प्रमाण पत्र कोर्स का नौवां दिन

वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक

कुरुक्षेत्र, 23 जनवरी : विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान में श्रीमद्भगवद्गीता प्रमाण पत्र पाठ्यक्रम के नौवें दिन ‘सुखी परिवार और गीता’ विषय का शुभारंभ माँ सरस्वती के समक्ष दीप प्रज्ज्वलन से हुआ। पाठ्यक्रम में विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के महामंत्री अवनीश भटनागर, संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह, कृष्ण कुमार भंडारी, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के परीक्षा नियंत्रक डॉ. हुकम सिंह, श्रीमती विष्णु कान्ता भंडारी, सरजंत सहित अनेक जिज्ञासु उपस्थित रहे।

विषय को समझाते हुए डॉ. शाश्वतानंद गिरि ने कहा कि सुखी परिवार के मूल में सुखी होने के लिए आपकी बुद्धि, विवेक ही है जो सुखी रख सकता है। किसी साधन से यदि सुखी होना चाहेंगे तो सुखी होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। जो आनंद किसी विषय से किसी वस्तु से मिले, उसका नाम सुख है और जो सुख बिना किसी विषय के स्वयं अपने ही स्वरूप का हो, उसका नाम आनंद है। जीवन की, व्यक्ति की पहचान या व्यक्तित्व का परीक्षण बड़ी-बड़ी बातों से नहीं अपितु छोटी-छोटी बातों से होता है।
पीड़ा और दुख पर उन्होंने कहा कि पीड़ा प्राकृत भी हो सकती है और परिस्थितिजन्य स्वाभाविक भी, लेकिन दुख का संबंध अंतःकरण, मन से है। अध्यात्म विद्या सर्वात्मक बनाती है और ठीक-ठीक बताकर जीवन में कर्तव्य पालन की ऐसी विधा देती है कि आपको अपने जीवन में किसी कठोर कर्तव्य का भी पालन करना पड़े तो उसके पाप से भी अपने को बचाकर उसके कर्तव्य का पालन कर सकें। धर्म अभय नहीं निर्भय करता है। वेदांत या ब्रह्मविद्या या अध्यात्म विद्या अभय दान करती है क्योंकि अभय केवल आत्मा का स्वरूप हो सकता है। जहां भी भेद है वहां अभय संभव ही नहीं है।

विषय मे आगे बताया गया कि भारतीय दर्शन, भारतीय चिंतन किसी को जड़ नहीं मानता। जो जड़ है उसमें भी हम चेतन का आधान करते हैं। जो सकारात्मक परम्पराएँ हैं उन्हें इस भाव से निरंतर रखें कि वे हमारे पूर्वजों से आई हैं। फिर उनकी वैज्ञानिकता भी समझने की कोशिश करें। लेकिन पहले श्रद्धा अवश्य रखें कि हमारी परंपराओं में भी कहीं न कहीं गहरा दर्शन है, गहरी वैज्ञानिकता है। हमारे पूर्वज बहुत परिपूर्ण थे।

जब ब्रह्म ज्ञान हो जाता है तभी सूक्ष्म शरीर का नाश होता है। जिस जीव को तत्वज्ञान हो जाए और ब्राह्मी वृत्तिपूर्वक वह शरीर का त्याग करे तो ही उसके सूक्ष्म शरीर का नाश होगा। जब वह ब्राह्मीभाव पूर्वक अपने शरीर का परित्याग करता है तब उसका सुख शरीर भी नष्ट होता है और फिर यह परम्परा समाप्त होती है। आपका देहाभिमान जितनी मात्रा में संकीर्ण रहेगा, उतनी मात्रा में ब्रह्मविद्या के लिए, अध्यात्म विद्या के लिए द्वार बंद रहेंगे। देहाभिमान जितनी मात्रा में विघलित होगा, उतनी मात्रा में आपके अंदर श्रद्धा एवं जिज्ञासा का द्वार खुलने की संभावना जागृत होगी और अध्यात्म विद्या के पात्र बन सकते हैं।

ईश्वर सृष्टि और जीव सृष्टि के विषय में उन्होंने वल्लभाचार्य जी द्वारा कहे गए शब्दों का उल्लेख करते हुए कहा कि जो परमात्मा ने बनाया वह है जगत, और परमात्मा के बनाए हुए जगत में जो अपने रिश्ते-नातों का ताना-बाना बुन लेते हैं वह संसार है। संसार पीड़ादायक है, दुखदायक है। ईश्वर के प्राकृत जगत में कोई दोष नहीं है। उन्होंने कहा कि आज भी हमें अपने परिवारों को पुष्ट करना बहुत जरूरी है। सभी के परिवार पुष्ट होंगे तो ही हम उन्हें राष्ट्रीय चेतना से जोड़ सकते हैं, तभी राष्ट्र का एक कुटुम्ब का स्वरूप निर्मित हो सकता है। यदि भारत राष्ट्र कुटुंब के स्वरूप में आ जाए तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ सिद्ध हो जाता है क्योंकि भारत में ही यह दर्शन है। अन्यत्र तो इस दर्शन की भूमिका भी नहीं है।

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