बुद्धिपरक है श्रीमद्भगवद् गीता की शिक्षा दृष्टि : महामंडलेश्वर डा. शाश्वतानंद गिरि

ज्ञान और कर्म का सामंजस्य ऐसा हो कि कर्म होते हुए बंधन न हो, यही है गीता की मौलिकता।
बुद्धि अपनी ओर देखती है तो दृष्टा, बाहर की ओर देखती है तो मन हो जाती है।
विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान में श्रीमद्भगवद्गीता प्रमाण पत्र कोर्स का सातवां दिन।

वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक

कुरुक्षेत्र, 21 जनवरी : विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान में श्रीमद्भगवद्गीता प्रमाण पत्र पाठ्यक्रम के सातवें दिन ‘गीता प्रणीत शिक्षा दृष्टि’ विषय का शुभारंभ माँ सरस्वती के समक्ष दीप प्रज्ज्वलन से हुआ। संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने बताया कि इस प्रमाण पत्र कोर्स में प्रत्यक्ष एवं देश के अन्य भागों से निरंतर तरंग माध्यम से जुड़ रहे प्रतिभागियों से आभास होता है कि श्रीमद्भगवद्गीता गीता के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने का संस्थान का यह प्रयास सफल रहा है।

‘गीता प्रणीत शिक्षा दृष्टि’ विषय को समझाते हुए डॉ. शाश्वतानंद गिरि ने कहा कि गीता की शिक्षा दृष्टि बुद्धिपरक है, प्रज्ञापरक है। यह प्रमाण और व्यवहार के समन्वय का आग्रह रखती है। व्यवहार में आपके तत्वज्ञान का पूर्ण समावेश हो और आप सब तरह का व्यवहार करते हुए भी सफलतापूर्वक व्यावहारिक सिद्धि भी प्राप्त करें और उसके साथ-साथ बंधन में भी ना आए, यह गीता की शिक्षा दृष्टि है। गीता की शिक्षा ब्राह्मी स्थिति तक पहुंचाती है। यह ब्रह्म निर्वाण है।

सुख और दुख केवल अनुकूलता और प्रतिकूलता का अंतर है। जिस चीज को हम सहजता से स्वीकार कर लेते हैं, हम सुखी हो जाते हैं और जिसे हम नहीं स्वीकार कर पाते तो दुखी हो जाते हैं। जब आप विषय का स्मरण करते हो तो विषय का स्मरण करते ही अवचेतन मन उस विषय की संगता में आ जाता है। यह चेतन और अवचेतन मन का ऐसा रिश्ता है कि आप चेतन मन में कल्पना भी करें तो अवचेतन मन इसको कल्पना नहीं मानता, वह इसे सत्य मानता है और आपके शरीर में वही प्रभाव शुरू कर देता है।

विषय में आगे बताया गया कि जब अपने व्यावहारिक जीवन में कोई भी कर्म करते हैं, उस कर्म का जो विधान है और जो उसकी विधि है यदि उसमें कमी रह गई तो कर्म के प्रभाव में भी कमी रह जाती है। अधिकार पर वर्णन करते हुए उन्होंने कहा कि एक अधिकार योग्यतापरक होता है और दूसरा स्वत्वपरक अधिकार। कर्म करने में हमारा योग्यता पर अधिकार है लेकिन कर्म के फल की निर्मिति में, फल के निर्माण में हमारा योग्यता परक अधिकार कभी नहीं है।

निष्काम कर्मयोग पर उन्होंने कहा कि कर्तव्य के लिए कर्तव्य करो। जब आप कर्तव्य की दृष्टि से कर्तव्य करते हो और स्वयं के अंदर कर्तापने का अभिमान नहीं लाते तो कर्म बहुत खूबसूरती से होने के बाद भी आप उसके बंधन से में नहीं बंधते। ज्ञान और कर्म दोनों का कैसा सामंजस्य हो कि कर्म भी हो जाए और बंधन भी ना हो, यही गीता की मौलिकता है। यह निष्काम कर्मयोग ज्ञान और कर्म का मौलिक समन्वय है। जब ईश्वर की सृष्टि की दृष्टि से अपने कर्तव्य का निर्धारण करेंगे तो स्वाभाविक रूप से जो वास्तविक धर्म है, वह आपका संचालक हो जाएगा।

विषय में आगे बताया गया कि श्रुति में वचन की प्रधानता है, स्मृति में वक्ता की प्रधानता है। श्रीमद्भगवद्गीता स्मृति प्रस्थान है और उपनिषद में अनुभूति की प्रधानता है। श्रीमद् शब्द भगवान के सम्मान में है अर्थात् श्रीमान् भगवान के द्वारा गायी हुई। बुद्धि जब अपने ही प्रकाशक आत्म चैतन्य का दर्शन करती है और फिर तत्वमयी हो जाती है वह सांख्य दर्शन हुआ। सत्य और असत्य के पार जो इन दोनों का अधिष्ठान परम तत्व है उसको जानते ही बुद्धि फिर बुद्धि नहीं रहती, वह स्वयं तत्व हो जाती है। बुद्धि जब अपनी और देखती है तो दृष्टा हो जाती है और जब बाहर की ओर देखती है तो मन हो जाती है। बुद्धि जब दृष्टा हो गई तो साक्षी के उद्घाटन की संभावनाएं जागृत हो जाती हैं और मन हो गई तो संसार में फिसलने की संभावनाएं जागृत हो जाती हैं।

आधि, व्याधि और समाधि पर इस विषय में बताया गया कि आधि मन में होती है, व्याधि शरीर में होती है और समाधि कारण में होती है। बुद्धि का कारण में लीन हो जाने को समाधि कहेंगे। समाधि माने ईश्वर, शुद्ध बुद्धि। बुद्धि अचल और समाधिलब्ध होती है तो वास्तव में वह प्रज्ञा हो जाती है। इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के अनेकों रहस्यों को उद्घाटित किया। इस अवसर पर संस्थान के राष्ट्रीय सचिव वासुदेव प्रजापति, डॉ. हुकम सिंह, श्रीमती विष्णु कान्ता भंडारी, जयभगवान सिंगला, सरजंत व अनेक जिज्ञासु उपस्थित रहे।

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