कहाँ तक गिनाऊँ हरी कथा अनंता पर तर्क-वितर्क गंभीरतम अपराध है भारत में अब नये अवतारों की तलाश ज़ोर पकड़ रही है अशोक कुमार कौशिक बुलबुल एक्सप्रेस से सावरकर की उड़ने की बात वामपंथी इतिहासकारों ने छुपा रखी थी, जिसका खुलासा अब हुआ है। इसी बुलबुल से वे, माफीनामे की पैरवी करने भी जाते थे और जब माफी मिल गई, पेंशन बंध गई, तो बुलबुल ब्रिटेन चली गई। जिसके ऐसे समर्थक इतिहासकार हों, उन्हे विरोधियों की जरूरत ही नही। ‘वीर’ जेल की काल कोठरी में बंद था। वहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता था। वो अंग्रेजों की जेल थी, लेकिन जेलर ‘शोले’ वाला नहीं था। कमाल यह हो गया कि जेल की जिस कोठरी में ‘वीर’ बंद था, वहां एक बुलबुल प्रकट हो गई। ‘वीर’ अचंभित रह गया। ‘वीर’ इससे पहले कि कुछ कहता, बुलबुल ने अपने पंख खोल दिए और कहा, ‘वीर’ मेरे पंख पर बैठ जा। ‘वीर’ मंत्रमुग्ध होकर पंख पर सवार हो गया। न जाने कैसे बुलबुल ‘वीर’ को लेकर जेल से बाहर निकल आई। ‘वीआर’ ने देखा एक बूढ़ा आदमी लोगों में आजादी की अलख जगा रहा है। बुलबुल ने पूछा, ‘वीर’ क्या तुम भी आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेना चाहोगे? ‘वीर’ थोड़ा विचलित हो गया और बोला, नहीं…नहीं मुझे इनसे कुछ लेना-देना नहीं है। मुझे तुम जेल में वापस छोड़ आओ। वापसी में ‘वीर’ ने देखा, कुछ नौजवानों को पुलिस मारती हुई ले जा रही है। नौजवान मार खाते हुए भी इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं। बुलबुल फिर बोली, ‘वीर’ तुम भी इसमें शरीक होकर नाखून क्यों नहीं कटा लेते? ‘वीर’ ने फिर इंकार में सिर हिलाते हुए कहा, अगर मुझे किसी ने इनके बीच देख लिया तो ‘साहब बहादुर’ मेरी ‘अर्जी’ खारिज कर देंगे। तुम मुझे वापस ले चलो। बुलबुल ‘वीर’ को वापस जेल की कोठरी में ले आई। इस तरह बुलबुल रोज ‘वीर’ को अपने पंखों पर बैठाकर बाहर ले जाती। फिर एक दिन ‘साहब बहादुर’ ने ‘वीर’ की ‘अर्जी’ मंजूर कर ली। रोज की तरह बुलबुल कोठरी में आई। ‘वीर’ बाहर जाने के लिए अपना सामान समेट रहा था। ‘वीर’ ने बुलबुल से वादा लिया कि कभी किसी से मत कहना कि तुम मुझे अपने पंखों पर बैठाकर बाहर ले जाती थीं। बुलबुल ने कहा, फिलहाल तो किसी से नहीं कहूंगी। लेकिन आजादी के 75 साल बाद एक दिन ऐसा आएगा किसी को इस बात का पता चल जाएगा और वह किसी किताब में इसका जिक्र कर देगा। लेकिन तब न तुम होंगे और मैं होऊंगी, लेकिन लोग इस पर आंख मूंद कर यकीन करेंगे। हमारे देश में बुलबुल की सवारी इन दिनों मज़ाक बनी हुई है वीर सावरकर यदि उसकी सवारी करते हुए अपने वतन को नमन् करने जाते थे तो यह तो अच्छी बात है इसमें बुरा क्या है जो इस तरह गदर मचा हुआ है इससे तो बेचारी बुलबुल बड़ी मुश्किल में आ जाएगी। हो सकता है पाठ पढ़ने वाले बच्चे इसे पकड़ इसकी सवारी करने लगे तो उसकी क्या हालत हो जायेगी ? इसलिए बच्चों के हित में इस पर बहस मुबाहिसे से दूर रहें। पहले जान लीजिए बुलबुल कलछौंह भूरे मटमैले या गंदे पीले और हरे रंग के होते हैं और अपने पतले शरीर, लंबी दुम और उठी हुई चोटी के कारण बड़ी सरलता से पहचान लिए जाते हैं।उनकी पूंछ के नीचे लाल रंग होता है विश्व भर में बुलबुल की कुल 9700 प्रजातियां पायी जाती हैं। इनकी कई जातियाँ भारत में भी पायी जाती हैं, जिनमें “गुलदुम बुलबुल” सबसे प्रसिद्ध है। बुलबुल नर सुरीला होता है। मादा को आकृष्ट करने गाता है। यह ईरान का राष्ट्रीय पक्षी है। ईरान जैसे देश के राष्ट्रीय पक्षी को अपनी सवारी बनाकर ही तो उन्हें वीर की ख्याति मिली। इसे कपोल कल्पित कहना निरी मूर्खता है। जिस देश में शिव जी नंदी की ,काली मां शेर की , लक्ष्मीजी उल्लू की, गणेशजी जी चूहे की सवारी कर सकते हैं तो संघ के वीर सावरकर बुलबुल की क्यों नहीं कर सकते ? बच्चों और तर्कवीरों को ये उदाहरण देकर समझाना ज़रुरी। यह भी समझा दें पर तर्क-वितर्क गंभीरतम अपराध है। जब सवारी नन्हीं सवारी होती है तो दिव्य ज्ञान से उसको शक्ति सम्पन्न बनाया जा सकता है। जहां तक बात कर्नाटक के पाठ्यक्रम की है तो ज़रा ध्यान दीजिए जब हमारे कदम मनुस्मृति की ओर बढ़ चले हैं सरस्वती और लक्ष्मी का रुतबा निरंतर बढ़ रहा है। सरस्वती जी तो विश्वविद्यालय परिसर तक पहुंच चुकी हैंऔर लक्ष्मी की बढ़त ने अडानी को दुनिया में नंबर तीन पहुंचा दिया है। तो भला इनकी कहानी तो पढ़नी ही होगी यथा लक्ष्मी जी उल्लू पर सवार होकर आती हैं। अब विघ्नविनायक गणेशजी विराजमान होने वाले हैं वे चूहे पर सवार नज़र आयेंगे।तब यह प्रश्न आज तक किसी ने क्यों नहीं पूछा कि ऐसा कैसे संभव है। ऐसा पूछा जाना जुर्म भी हो सकता है क्योंकि आस्था का सवाल महत्वपूर्ण है यहां कोई तर्क नहीं चलता। इसी पावन भावना के साथ वीर सावरकर को लेना होगा। शक करना बेवकूफी है। चिल्लपों से क्या फायदा करोड़ों लोगों की आस्था का सवाल वे मान रहे हैं तो आपत्ति क्यों करनी। कोर्ट भी आस्था पर हमला नहीं कर सकता। कर्नाटक के शिक्षा मंत्री ने ठीक कहा कि यह साहित्य की काल्पनिक उड़ान की तरह है और उसे हटाने की मांग गलत है। वे ये मानकर चल रहे हैं कि आज भी दंतकथाओं पर साहित्य अवलंबित है। वे प्रगतिशील साहित्य से सरोकार नहीं रखते। बेशक उन्हें इसकी क्या ज़रुरत ? इसीलिए भारत-सरकार निरंतर धर्म कर्म को प्रोत्साहित कर रही है। हर 30-40 मील पर प्रवचनों के माध्यम से जो शिक्षा का प्रशिक्षण चल रहा है उसी का विस्तार कर्नाटक के पाठ्यक्रम का ये हिस्सा है। भारत में अब नये अवतारों की तलाश ज़ोर पकड़ रही है यदि वे चमत्कारी नहीं होंगे तो कैसे आस्था जन्मेगी। इससे पहले नाथूराम गोडसे को गाॅड बनाकर मंदिर बन चुके हैं। हमारे मोदीजी का चमत्कारी व्यक्तित्व भी कम नहीं उन्हें भी आस्थावान लोग भगवान स्वरुप देखने लगे। एक और चमत्कारी है शाह जी। मोदीजी के लंगोटिया यार चुनाव से पहले ही रिजल्ट बता देते हैं । इनके आगे तो आज का सबसे चमत्कारी बाबा बागेश्वर धाम वाला भी मात खा जाए। बिना किसी पहुंचे गुरु की सिद्धि के ये चमत्कार कम तो नहीं। आश्चर्यजनक तो सिर्फ यह है कि सावरकर ने बुलबुल को क्यों चुना ?अल्लामा इक़बाल भी जब ये कहते हैं हम बुलबुलें हैं इसकी यह गुलिस्तां हमारा तो भी बड़ी कोप्त होती है। ईरानी राष्ट्रीय पक्षी को इतनी तवज्जो देने की क्या ज़रूरत थी। हमारे उपवन के मोर,कोयल ,तोता मैंना क्यों नहीं लिए गए। यह शोध का विषय है। बुलबुल को लेकर सावरकर और इकबाल के बीच क्या कोई रिश्ता था जो सारे जहां से अच्छा लिखकर वे पाकिस्तान चले गए। अंग्रेजों ने भी स्काऊट गाईड की बच्चियों को कब बुलबुल कहा। वो आज भी चलन में है। बुलबुल जैसे भद्दे पक्षी को लेकर यह सब हुआ यह समझ से परे है। हो सकता है यह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का कोई बड़ा पहलू हो। इसलिए बिना सोचे समझे इस उलझन को सुलझा लें। वीर सावरकर का ये इतिहास उनके दिव्यतम चमत्कारिक ज्ञान का बोध कराता है और कर्नाटक सरकार की भांति भारत सरकार को इसे तमाम राज्यों के पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए ताकि अधर्मियों के स्वर खत्म हो सकें। बहरहाल इन सवालों के उत्तर खोजना और बुलबुल की सवारी पर प्रश्नचिंह लगाना बेमानी है। प्राच्य किंवदंतियों की तरह ही इसे स्वीकारिए और इंतजार करिए उन 75 लेखकों की खोज का जिन्होंने 50,000₹भारत सरकार से लेकर उनके मनमाफिक नया साहित्य रचा है। यह अमृत काल है जो मिल रहा है उसे ग्रहण कीजिए इसमें ही सबका भला है। अब तो भय्यन मुझे भी विश्वास हो गया मोर के आंसुओं से मोरनी गर्भवती होती। बतख आक्सीजन छोड़ती है। गाय के गोबर और मुत्र पीने से केंसर ठीक होता है। नाली की गेंस से चाय बनाई है। मगर के बच्चों से खेले हैं। शेर के दांत गिने है। कहाँ तक गिनाऊँ हरी कथा अनंता ताजा ताजा तो स्कूल की 8 वीं कक्षा की पुस्तक में वर्णन भी छप गया । सावरकर जिस जेल में छेद भी नहीं था वहां एक बुलबुल आती थी जिसपर बैठकर सावरकर मातृभूमि के दर्शनों को निकलते थे। फाड़ डालो सांइस की किताबों को जिनमें लिखा है पृथ्वी गोल है, मानना होगा चोकोर है मानना होगा सूर्य पृथ्वी के चक्कर लगता है आज से सब बंद कर दो सिर्फ संघी साहित्य पढो संघी साहित्य पढेगा जब ही तो विश्व गुरु बनेगा इंडिया Post navigation लड़कियों को लड़कों से ज्यादा पोषण में सुधार की जरुरत हरियाणा में जन सूचना अधिकार हुआ बेमानी