आज घरों के आस पास अब न पेड़ बचे हैं और न ही उनका कीटों से होने वाला भोजन। दिन भर दिन दूषित होती वातावरण की आबोहवा, प्रदूषित भोजन व गायब होते कीटों से पक्षियों पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। हम में से पक्षियों की कमी तो सबने महसूस की होगी, लेकिन उनको बचाने बहुत कम लोग ही आगे आए हैं। पक्षियों पर आफत के लिए पेड़ों की घटती संख्या से भोजन के लिए संकट, खेतों में कीट नाशक दवाओं का प्रयोग, घरों में गौरैया के रहने के लिए कोई जगह नहीं जैसे कारण है।

-सत्यवान ‘सौरभ’

बढ़ते शहरीकरण के कारण धरती पर जंगल कम क्या हुए इंसान ही नहीं पक्षी भी सिमटने लगे। आज हम सभी आधुनिकता की चकाचौंध में हम बंद कमरों में सिमट कर रह गए। लेकिन पेड़ पौधों के संरक्षण और नए पौधों को भूल गए। हम सबने ये अनुभव किया है कि हरियाली मनुष्य ही नहीं बल्कि पशु पक्षियों को भी जीने की राह सिखाती है। आज दुनिया भर में बढ़ती आबादी और शहरीकरण के विस्तार से पेड़ों की संख्या लगातार कम हो रही है। खासकर इससे गौरैया व तोता जैसे पक्षियों के जीवन पर संकट मंडराने लगा है।

एक जमाना था जब सुबह पक्षियों की चहचाहट से होती थी। लेकिन अब धीरे-धीरे गौरेया जैसी घर के आँगन कि शान बढ़ाने वाली प्रजाती लुप्त होने की कगार पर है। इसका बड़ा कारण ये है कि आज घरों के आस पास अब न पेड़ बचे हैं और न ही उनका कीटों से होने वाला भोजन। दिन भर दिन दूषित होती वातावरण की आबोहवा, प्रदूषित भोजन व गायब होते कीटों से पक्षियों पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। हम में से पक्षियों की कमी तो सबने महसूस की होगी, लेकिन उनको बचाने बहुत कम लोग ही आगे आए हैं।

आज घटते जंगलों से पक्षियों का जीवन अस्त-व्यस्त होने लगा है। आये दिन उनकी संख्या में लगातार गिरावट देखने को मिल रही है। समस्या यहाँ तक पहुँच गयी कि पेड़ों की घटती संख्या से पक्षियों को घरौंदे बनाने के लिए जगह तक नसीब नहीं हो पा रही है। मजबूरन बेचारे पक्षी अपने घोंसले कहीं बिजली के खंभों पर उलझे तारों में बना रहे हैं, तो कहीं रोड़ लाइटों पर। गौर से देखे तो कभी हमारे घर-आंगन में दिखने वाली गौरैया आजकल दिखाई नहीं देती। भोजन की कमी होने, घोंसलों के लिए उचित जगह न मिलने तथा माइक्रोवेव प्रदूषण जैसे कारण उनकी घटती संख्या के लिए जिम्मेदार हैं। शुरुआती पंद्रह दिनों में गौरैया के बच्चों का भोजन कीट-पतंग होते हैं। पर आजकल हमारे बगीचों में विदेशी पौधे ज्यादा लगाते हैं, जो कीट-पतंगों को आकर्षित नहीं कर पाते।

गौरैये के अलावा तोते पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। दुनिया में तोते की लगभग 330 प्रजातियां ज्ञात हैं। पर अगले सौ वर्षों में इनमें से एक तिहाई प्रजातियों के विलुप्त होने की आशंका है। पक्षियों पर आफत के लिए पेड़ों की घटती संख्या से भोजन के लिए संकट, खेतों में कीट नाशक दवाओं का प्रयोग, घरों में गौरैया के रहने के लिए कोई जगह नहीं जैसे कारण है। गौरैया की आबादी में गिरावट के कारणों में तेजी से शहरीकरण, जीविका के लिए घटते पारिस्थितिकी संसाधनों, प्रदूषण के उच्च स्तर और माइक्रोवेव टावरों से उत्सर्जन के कारण निवास स्थान का नुकसान है।

देखे तो सभी घरों में वेंटिलेटर की जगह एसी और पेड़ों ने सजावटी पौधों और पार्कों में सजावटी फूलों की झाड़ियों से बदल दिया है, जिससे पक्षियों के लिए घोंसला बनाना असंभव हो गया है, आजकल महिलाएं न तो धान सुखाती है, ताकि कुछ खाने को मिल सके। भारत समेत संपूर्ण विश्व की जैव विविधता जिस तेजी से घट रही है, वह दुखद तो है, लेकिन आश्चर्यजनक कतई नहीं है। अपने स्वार्थ के लिए मनुष्य द्वारा किए गए प्राकृतिक दोहन का नतीजा यह है कि बीते चालीस वर्षों में पशु-पक्षियों की संख्या घटकर एक तिहाई रह गई है। पेड़-पौधों की अनेक प्रजातियां तो विलुप्ति के कगार पर हैं। फिर भी हम अपनी जीवन-शैली बदलने के लिए तैयार नहीं हैं।

पुराने लोग बताते हैं, गाँवों के आस -पास का इलाका कभी वन यानी अनगिनत पेड़-पौधों से आच्छादित था। आज उन्ही क्षेत्र में कंक्रीट के जंगल ने पेड़-पौधों की जगह ले ली है। दरअसल, मकान बनाना हो या सड़क, अंधाधुंध रफ्तार से पेड़ काटे जा रहे हैं। हालांकि, पेड़ काटने के नियम हैं और आवासीय इलाकों में चालीस प्रतिशत क्षेत्र पेड़-पौधों के लिए छोड़ा जाना चाहिये। लेकिन, पर्यावरण संरक्षण के ये नियम केवल कागजी हैं। लोग सोचते हैं एक पेड़ कट जाने से भला पर्यावरण पर कौन सी आफत आ जायेगी। जबकि, विभाग पुराने पेड़ बचाने की बजाय नये लगाने की योजनाओं पर ज्यादा जोर देता है।

इन दिनों ग्लोबल-वार्मिंग की समस्या से जूझ रही दुनिया के लिये पर्यावरण असंतुलन खतरा बन गया है। अंधाधुंध काटे जा रहे वृक्षों से सिमट रहे जंगल इसका प्रमुख कारण है। फिर भी कोई चेतने को तैयार नहीं हैं। लिहाजा बढ़ती आबादी के कारण न केवल हरियाली गुम हो रही है, बल्कि सांस लेने के अनुकूल वायु व पीने को शुद्ध जल भी नसीब नहीं हो रहा है। ऐसा नहीं कि पर्यावरण संतुलन के लिए सरकारी योजनाएं नहीं हैं। इसको लेकर तमाम योजनाएं बनी हैं, बावजूद इसके हमारी धरती सूनी ही है।

बाग-बगीचों की जगह कंक्रीट के जंगल फ़ैल गए है; बढ़ती आबादी व आर्थिक कारणों से पेड़ धड़ाधड़ काटे जा रहे हैं। जिसके स्थान पर कंक्रीट का जंगल फैलता जा रहा है। जिससे शहरों की कौन कहे देहात की आबोहवा भी प्रभावित होने लगी है। पॉलिथीन इस्तेमाल की पाबंदी भी बेमतलब साबित हो रही है। जिससे जल,जंगल व जमीन तीनों का चेहरा फीका हो गया है। पर्यावरण असंतुलन को बढ़ावा देने में कई तरह के कारक शामिल हैैं। इसका अहसास भी हो रहा है। बावजूद इसे गंभीरता से नहीं लिया जाता है, जिससे सरकारी या गैर सरकारी सभी योजनाएं अथवा अभियान फाइलों तक सिमट कर रह जाता है।

रातो-रात धनवान बनने की चाहत और सुविधा का उपभोग करने की ललक में न केवल पेड़ों की कटाई हो रही है बल्कि काटे गये पेड़ की जगह दूसरा पौधा लगाने की फिक्र भी नहीं है। अपनी भूमि नहीं होने के कारण नहर, आहर व तालाब के किनारे पेड़ लगाये जाते हैं। सरकारी स्तर पर वृक्षारोपण में स्थानीय लोगों का जुड़ाव नहीं हो पाता। एजेंसियां पेड़ लगा कर चली जाती हैं और बाद में उसमें कोई पानी देने वाला भी नहीं रहता। जिसमें कितने सूखे तथा कितने अभी जिंदा हैं यह बताना मुश्किल होता है।

दरअसल हमारे यहां सरकार और अन्य संस्थाओं के द्वारा बड़े जीवों के संरक्षण पर तो ध्यान दिया जाता है, पर पक्षियों के संरक्षण पर उतना ध्यान ही नहीं। हम सब के द्वारा वृक्षारोपण, जैविक खेती को बढ़ाकर तथा माइक्रोवेव प्रदूषण पर अंकुश लगाकर पक्षियों को विलुप्त होने से बचाया जा सकता है। अगर अब भी यदि हम जैव विविधता को बचाने का सामूहिक प्रयास न करें, तो बहुत देर हो जाएगी और सूनी बगिया देखकर, तितली खामोश हो जाएगी, जुगनूं की बारात से, जोश गायब हो जायेगा।

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