-अमित नेहरा

1987 में जब चौधरी चरण सिंह का स्वर्गवास हुआ, तब उत्तर प्रदेश विधानसभा में लोकदल के 84 विधायक थे और आज हालत यह है कि उनके पौत्र जयंत चौधरी के नेतृत्व में राष्ट्रीय लोकदल (लोकदल) का उत्तरप्रदेश विधानसभा में एक भी विधायक नहीं है (हालांकि 2017 के विधानसभा चुनाव में रालोद का एक विधायक जीत गया था मगर वह पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गया)! चौधरी चरण सिंह की विरासत संभाल रही पार्टी की इतनी बुरी हालत इससे पहले कभी नहीं रही।

देखा जाए तो पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने 1974 में लोकदल का गठन किया, 1977 में इस पार्टी का जनता पार्टी में विलय हो गया। इसके बाद 1980 में दल का नाम दलित मजदूर किसान पार्टी रखा गया। वर्ष 1985 में चौधरी चरण सिंह ने फिर से लोकदल का गठन किया। 1987 में उनके पुत्र चौधरी अजित सिंह ने लोकदल (अ) यानी लोकदल अजित के नाम से नई पार्टी बना ली। इसका 1993 में कांग्रेस में विलय हो गया। इसके बाद 1996 में अजित सिंह फिर अलग हुए किसान कामगार पार्टी बना ली। फिर 1998 में अजित सिंह ने इस पार्टी का नाम बदलकर राष्ट्रीय लोकदल कर दिया जो अभी तक चल रही है।

चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में लोकदल ने अपना स्वर्णकाल देखा। ठेठ किसानी पॉलिटिक्स के जरिये चौधरी चरण सिंह उत्तरप्रदेश के लगभग 200 विधानसभा क्षेत्रों में सीधा असर रखते थे। लेकिन उनके स्वर्गवास के बाद बदली राजनीतिक परिस्थितियों में उनके पुत्र स्वर्गीय चौधरी अजित सिंह पार्टी को खास मजबूती नहीं दे पाए। क्योंकि उनकी साफ सुथरी और छल कपट रहित राजनीति बाकी दलों की अवसरवादी राजनीति के सामने टिक नहीं पाई।

रालोद के गठन होने के बाद उत्तरप्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों में रालोद के प्रदर्शन को देखा जाए तो 2002 में 14 विधायक जीते और पार्टी का वोट प्रतिशत रहा 3.47%, 2007 में 2.48% वोट मिले व 10 विधायक जीत गए, 2012 में 9 विधायक बने व वोट शेयर रहा 2.23% और 2017 के चुनाव में रालोद का केवल 1 ही प्रत्याशी जीत सका और पार्टी केवल 0.25% वोटों में सिमट गई।

उत्तरप्रदेश के 2022 के इन विधानसभा चुनावों में न तो चौधरी चरण सिंह और न ही चौधरी अजित सिंह हैं अतः रालोद की सारी जिम्मेदारी जयंत चौधरी के कंधों पर है। इससे पहले हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी लगभग खत्म सी हो चुकी थी।
वजह थी 2013 में मुजफ्फनगर दंगों के बाद हुआ ध्रुवीकरण। दंगों के बाद भाजपा ने यहां अपनी जड़ें मजबूत कर लीं तो रालोद को सबसे अधिक नुकसान हुआ। क्योंकि हिंदू और मुस्लिम रालोद के वोटर थे। दंगों के बाद दोनों समुदायों में फूट पड़ गई जिसका फायदा भाजपा को मिला।

लेकिन इस बार चुनाव में स्थितियां बदल गईं हैं।
वजह रही है तीन कृषि कानूनों के विरोध में एक साल चला किसान आंदोलन। जब 28 जनवरी 2021 को किसान आंदोलन को सरकारी स्तर पर कुचलने की कोशिश की गई तो चौधरी अजित सिंह ने आंदोलन को अपना पूर्ण समर्थन देकर इसे संजीवनी प्रदान कर दी। उन्होंने पूरे पश्चिम उत्तरप्रदेश के अपने पार्टी के कैडर को रात ही में किसान आंदोलन में कूच करने का निर्देश देकर रालोद में भी जान फूँक दी। चौधरी अजित सिंह ने किसान आंदोलन की बुझती लौ को आखिरी क्षणों में प्रज्वलित कर दिया। किसान आंदोलन तो सफल हो गया मगर चौधरी अजित सिंह इसकी सफलता के साक्षी नहीं बन पाए। कोविड-19 के संक्रमण के चलते वे 6 मई 2021 को स्वर्ग सिधार गए।

25 मई 2021 को उनके पुत्र जयंत चौधरी को रालोद का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। अब पार्टी की सारी जिम्मेदारी जयंत के कंधों पर थी। उन्होंने बेहद सधे कदमों से पार्टी में जान फूँकने की शुरुआत की। इसी बीच 5 सितंबर 2021 की सुबह रालोद के लिए नया सूरज लेकर आई। इस रोज मुज्जफरनगर में हुई किसान महापंचायत में रिकॉर्ड तोड़ जनसैलाब उमड़ा और इस महारैली ने इस क्षेत्र में हिन्दू-मुस्लिम के बीच की खाई पाट दी। रैली में शामिल हिंदुओं ने अल्लाह हो अकबर और उसके जवाब में मुस्लिमों ने हर-हर महादेव के नारे लगाकर साम्प्रदायिकतावादी ताकतों को करारा जवाब दे दिया।

युवा जयंत ने मौके की नजाकत को देखते हुए अपने हमउम्र युवा समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश के साथ हाथ मिला लिया। दोनों ने मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला लिया। आगामी 10 फरवरी 2022 को होने जा रहे पहले चरण के चुनाव में रालोद, बड़े भाई की भूमिका में है। इस चरण की 58 सीटों में से रालोद 29 सीटों पर, 28 पर सपा और एक सीट पर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में इन 58 सीटों में सपा को 2 और रालोद को सिर्फ एक सीट पर ही जीत मिली थी।

सपा-रालोद ने इन 58 में से 43 विधानसभा सीटों पर नए उम्मीदवार उतारे हैं। इन 43 उम्मीदवारों ने 2017 का चुनाव न तो सपा के टिकट पर लड़ा था और न ही राष्ट्रीय लोकदल के टिकट पर। इससे यह मैसेज देने की कोशिश की गई है कि जो मेहनती होगा टिकट उसे ही दी जायेगी।

इसके साथ-साथ जयंत चौधरी ने अपने इर्दगिर्द जमावड़े में स्वार्थी तत्वों की पहचान कर सर्जिकल स्ट्राइक करके यह संदेश दिया कि पार्टी में काली भेड़ों को बख्शा नहीं जायेगा।

हालांकि जयंत चौधरी की थोड़ी बहुत आलोचना यह कहकर की जा रही है कि उन्होंने गठबंधन में अपने लिए कम सीटें लीं जबकि इस बार किसान आंदोलन के चलते रालोद के लिए बहुत सारी सीटें जीतने का बहुत बड़ा अवसर था।

लेकिन कुछ फैसलों में दीर्घकालिक राजनीति को भी ध्यान में रखना पड़ता है।

इन विधानसभा चुनावों में परिणाम चाहे कुछ भी रहें लेकिन जयंत चौधरी पर विपक्षी दलों ने जिस तरह डोरे डालना और उन्हें रिझाना शुरू कर दिया है उससे यह तो तय है कि वे उत्तरप्रदेश की राजनीति में गेमचेंजर साबित होने जा रहे हैं और उन्हें हल्के में कतई नहीं लिया जा सकता। पश्चिम उत्तरप्रदेश में लोगों में उनके प्रति जबरदस्त क्रेज दिखाई दे रहा है। वे अपने रोड शो और रैलियों में रिकॉर्ड तोड़ भीड़ इकट्ठा कर रहे हैं। यही वजह है कि इस मतवाली भीड़ ने लुटियंस जोन के दरवाजे हिला कर रख दिये हैं। हाल-फिलहाल के विधानसभा चुनावों में लुटियंस जोन में इतनी बैचेनी कभी नहीं देखी गई।
…और इस बेचैनी की वजह हैं जयंत चौधरी

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक, लेखक, समीक्षक और ब्लॉगर हैं)

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