उर्दू से नफ़रत है तुम्हें, आज़ाद हिंद फौज में तीनों शब्द उर्दू के हैं । 
“लाल किले से आई आवाज, सहगल ढिल्लो शाहनवाज, तीनों की उम्र हो दराज” !
मेजर जनरल शहनवाज खान को आजादी के बाद 1952 में मेरठ की जनता ने अपना सांसद चुना, जिन्होंने बटवारें के दौरान पाकिस्तान में अपना परिवार छोड़ भारत में रहना पसंद किया था।

अशोक कुमार कौशिक

 23 जनवरी को सुभाष चंद्र बोस के 125 में जन्मदिन पर हर संघी को जहां मौका मिला सोशल मीडिया पर नेताजी को श्रद्धांजलि ज़रूर दी।  बहुत जगह तो नेताजी द्वारा ‘ आज़ाद हिंद फौज ‘ का मुआयना करते हुए गीत   ‘ सुभाष जी ….सुभाष जी ….वो शाने हिंद आ गये ‘ ही चल रहा था।

नेताजी का महिमामंडन संधियों की एक विशेष कमजोरी की कड़ी है। संघ के मूल में है – नफ़रत और हिंसा। नफ़रत गैर – हिंदुओं से और उनकी प्रताड़ना के लिए हिंसा से परहेज़ नहीं। नेताजी हिंसा के मार्ग से देश को आज़ाद कराने की सोच लेकर चल रहे थे। यह संघ को बहुत पसंद है। दूसरा उनका फासिस्ट हिटलर और मुसोलिनी से मेल तथा आज़ादी के बाद 20 साल तक तानाशाही की वकालत , नेताजी को संघ का प्रिय बना देती है।  संघ की शाखाओं में भी सेना के अंदाज़ में परेड निकालने की ट्रेनिंग दी जाती है और वहां पूरी तानाशाही है जिसे वे अनुशासन का नाम देते हैं ।

संघियों को इतिहास का इतना ही ज्ञान होता है जितना शाखाओं में दिया जाता है या उनके व्हाट्सएप ग्रुप में परोसा जाता है । ऐसे ही एक संघी के व्हाट्सएप स्टेटस पर मैंने 23 जनवरी को ‘ सुभाष जी …सुभाष जी ‘ देखा तो उसे बताया कि आज़ाद हिंद फौज में नेहरू ब्रिगेड और गांधी ब्रिगेड भी थी । उर्दू से नफ़रत है तुम्हें पर आज़ाद हिंद फौज में तीनों शब्द उर्दू के हैं । उत्तर नहीं आया।

उन्हें यह नहीं बताया था कि 8 जुलाई 1944 को आज़ाद हिंद रेडियो से भाषण देते हुए उन्होंने ही पहली बार गांधी जी को राष्ट्रपिता कहा था। 1938 में नेताजी ने कांग्रेस के राष्ट्रपति के नाते भविष्य के भारत के लिए एक प्लैनिंग कमिशन बनाया था। इसका अध्यक्ष उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को बनाया था । वही प्लैनिंग कमीशन जिसे मोदी जी ने समाप्त कर नीति आयोग बनाया था । उन्हें यह भी नहीं बताया कि बंगाल में हिंदू महासभा मजबूत ना हो मुस्लिम लीग की प्रतिक्रिया में इसलिए नेताजी ने एक दल का गठन किया था जिसका नाम है फॉरवर्ड ब्लॉक जो वामपंथी मोर्चे का सदस्य है आज भी। कांग्रेस के राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने ही कांग्रेस के सदस्य को हिंदू महासभा या मुस्लिम लीग का सदस्य होने पर प्रतिबंध लगाया था । सुभाष जी की राजनीति में सांप्रदायिकता कहीं नहीं थी।

ठीक उसी समय ‘ देशभक्त ‘ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर बंगाल में सरकार बनाई थी क्योंकि दोनों में एक बात में सहमति थी हिंदू – मुसलमान साथ नहीं रह सकते। नेताजी दूसरी बार कांग्रेस के अध्यक्ष गांधी जी की इच्छा के विपरीत बने और फिर इस्तीफा देना पड़ा , इसको ऐसे पेश किया जाता है जैसे उनकी आपसी  दुश्मनी हो गई थी। गांधी जी को राष्ट्रपिता इस घटना के पांच साल बाद कहा था यही इस भ्रम को तोड़ने के लिए काफ़ी है ।

गांधीजी को परेशानी थी नेताजी की हिंसा के मार्ग के चुनाव से और नेहरू को आपत्ति थी फासिस्टों का साथ देने पर । नेहरू ने तो इटली के फासिस्ट तानाशाह मुसोलिनी से मिलने से ही इंकार कर दिया था । मतभेद वैचारिक थे व्यक्तिगत बिल्कुल नहीं। नेहरू जी की पत्नी की मौत के समय सुभाष चंद्र बोस मौजूद थे। सुभाष बाबू की बेटी अनिता  1961 में नेहरू के घर पर एक सप्ताह रुकी थी । स्वतंत्रता संग्राम में सभी नेताओं में कभी व्यक्तिगत कड़वाहट नहीं थी पर यह बात संघी नहीं समझ सकते  क्योंकि उनके यहां मतभेद का  मतलब  होता है शत्रुता।

‘क्या बात हुई क्या गरज पड़ी, ये रंग-ए-जहां बदला कैसा मगरूरों का मजलूमों में सर रखना कैसा,हिंदू कैसा, मुस्लिम कैसा, ब्राह्मण कैसा, बनिया कैसा हम वोट शाहनवाज को देंगे, हम वोट शाहनवाज को देंगे’

उपरोक्त नारा उस समय मेरठ शहर में गूंज रहा था जब 1952 में देश में लोकतंत्र के फूल खिल ही रहे थे। मेरठ के लोगों ने आज़ाद हिन्द फौज के मेजर जनरल शहनवाज खान को अपने सिर आंखों पर बिठाया था। वही जनरल शहनवाज खान जो नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के बेहद करीबियों में से थे। जिन्होंने आजाद हिंदुस्तान में लाल किले पर ब्रिटिश हुकूमत का झंडा उतारकर सबसे पहले तिरंगा लहराया था। वही लाल किला जहां साल 1945 में एक आवाज ऐसी गूंजी, जिसने अंग्रेज़ो के पसीने छुड़ा दिए, 

“लाल किले से आई आवाज, सहगल ढिल्लो शाहनवाज,तीनों की उम्र हो दराज” !!
वो भी तब जब भारत में सांप्रदायिकता ने अपना पैर पसार लिया था। दरअसल, अंग्रेजों ने 1945 में आजाद हिन्द फौज के सैनिकों और अधिकारियों को गिरफ्तार कर लिया। उन पर लालकिले में मुकदमा चलाया गया। उनमें आजाद हिन्द फौज के तीन अफसरों, कैप्टन प्रेम सहगल, कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों और मेजर जनरल शाहनवाज खान पर प्रमुख मुकदमा चलाया गया। इन सब पर देशद्रोह का इल्जाम था।

आजाद हिंद फौज के सिपाहियों के लिए देश भर में प्रदर्शन होने लगे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भारतीयों को एक सूत्र में बांधने की जो कल्पना की थी वो साकार हो रही थी। साम्प्रदायिक दंगों के बावजूद, धर्म की दीवारें, इस ट्रायल के आगे टूट चुकी थी। दूर-दराज से आकर लोग लालकिले के बाहर जमा होने लगे। अंदर ट्रायल चल रहा था, और बाहर एक ही आवाज गूंजती थी,

‘लाल किले को तोड़ दो, आजाद हिन्द फौज को छोड़ दो।’
ब्रिटिश हुकूमत ने भी यह नहीं सोचा था कि इसका देश भर में इतना विरोध होगा। जो माहौल बन रहा था। अंग्रेज पशोपेश में थे। 31 दिसंबर 1945 को ब्रिटिश अदालत ने, इन तीनो को देशद्रोह का आरोपी घोषित कर दिया था। जिसकी सजा फांसी थी। लेकिन विरोधों के जनसैलाब को देखते हुए अंग्रेजों की हिम्मत न तो इन आज़ादी के सिपाहियों को फांसी देने की पड़ी और न ही कारावास की सज़ा देने की। अंत में 3 जनवरी 1946 को सहगल ढिल्लन शाहनवाज को रिहा कर दिया। यह अंग्रेज़ों की बड़ी हार थी। 

बता दें कि जब इन तीनों को गिरफ्तार किया गया, तब कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लन को अकाली दल और जनरल शहनवाज खान को मुस्लिम लीग ने अपनी ओर से इनका मुकदमा लड़ने का ऑफर दिया। लेकीन दोनों ने धार्मिक आधार पर दिए गए ऑफर को ठुकरा दिया। बल्कि इन्होंने कांग्रेस की डिफेंस टीम को अपना मुकदमा लड़ने के लिए हामी भर दी थी। सांप्रदायिकता और कट्टरता के उस दौर में यह फैसला सराहनीय माना जा सकता है। 

24 जनवरी 1914 को जन्में उसी मेजर जनरल शहनवाज खान को आजादी के बाद 1952 में मेरठ की जनता ने अपना सांसद चुना। जिन्होंने बटवारें के दौरान पाकिस्तान में अपना परिवार छोड़ भारत में रहना पसंद किया था। देश की जनता ने भी जनरल को चार बार लगातार मेरठ से संसद भवन पहुंचाया। कांग्रेस की सरकार में मंत्री भी रहे। फिर 9 दिसंबर 1983 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

इन तथ्यों का सामना करने का साहस संघ में नहीं है । बस स्वतंत्रता संग्राम के हीरो हड़प कर गांधी – नेहरू को बदनाम करना ही उद्देश्य होता है। रवीश कुमार ने हाल ही में कहा है कि यह सब 30 जनवरी को गांधी हत्या के अपराध को छुपाने का प्रयास ही है बस ।

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