धर्मपाल वर्मा

चंडीगढ़ – आज पूरे हरियाणा में इस बात की चर्चा है कि हरियाणा के दिग्गज नेता पूर्व केंद्रीय मंत्री चौधरी बिरेंदर सिंह ने अपनी इच्छाओं पर लगे दमन को हटा लिया है । जब किसान कानूनों को लेकर उनसे बात की जाती थी तो वह पहले यह कहा करते कि मौका आने पर जवाब दूंगा फिर उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि किसानों के साथ अन्याय हो तो वीरेंद्र सिंह कभी इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। उनकी इस दशा को देखकर जानकार यह महसूस करते थे कि चौधरी बिरेंदर सिंह के अंदर एक जलजला तो है परंतु वे उसे जाहिर नहीं होने देना चाहते। भी मजबूर से हैं परंतु निश्चित तौर पर उन्हें वक्त की इंतजार है ।अब आंदोलन और आंदोलन की तेज धार को देखते हुए उन्होंने संघर्ष में कूदने का फैसला ले लिया और वह किसानों के पक्ष में आ खड़े हुए हैं ।

उधर उनके पुत्र हिसार के भाजपा सांसद बृजेंद्र सिंह हिसार में चल रहे भारतीय जनता पार्टी और सरकार प्रेरित आंदोलन मतलब एसवाईएल के मुद्दे पर शुरू किए गए धरने में शामिल नहीं हुए ।

यह आजकल की एक तीसरी चर्चित घटना है । वह यह कि हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने दिल्ली में चल रहे किसानों के आंदोलन की तेज धार के विपरीत चलने का एक अलग ही तरह का फैसला यह लिया है कि एसवाईएल के मुद्दे पर पंजाब के किसान को घेरा जाए । ऐसा शायद यह समझ कर किया गया होगा कि हरियाणा का किसान दिल्ली में बैठे पंजाब के किसान को टेढी नजरों से देखना शुरू कर दे और इस बात से ही शायद किसान आंदोलन में कोई फर्क आ जाए परंतु ऐसा बिल्कुल भी नजर नहीं आ रहा ।

क्योंकि यहां जो किसान बैठा है मतलब दिल्ली को घेरने वाला किसान सिर् पर कफन बांध कर बैठा है ।उसे न कोरोना का डर है न ही सर्दी का मतलब मौसम का ।ऐसा लगता है कि अंदर से वह यह गीत गुनगुना रहा है कि

हम मेहनत इस दुनिया से अब अपना हिस्सा मांगेंगे
एक गांव नहीं एक खेत नहीं, अब पूरी दुनिया मांगेंगे ।

अब यह लगने लगा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आंदोलन और किसानों की ओर रुख करने का संकेत दिया है परंतु इसमें विवश्ता हो सकती है रणनीति हो सकती है तिकड़म भी हो सकती है पर कुछ होने जरुर जा रहा है ।जो हो सकता है वह यह है कि प्रधानमंत्री माननीय उच्च न्यायालय को मध्य नजर रखते हुए शायद यह ऐलान कर दे कि उपरोक्त चर्चित कानूनों को फिलहाल लंबित माना जाएगा और इस पर फिर से विचार होगा और अंतिम फैसला बाद में होगा । इसलिए किसान इसे लंबित कानून मानकर अपने अपने घरों को लौट जाए और सरकार या संसद को इस पर विचार करने के लिए वक्त दे दे। ऐसा एक योजना के तहत करने की कोशिश हो सकती है ।अब देखना यह होगा कि किसान नेता इस संदर्भ में सरकार को कितनी अहमियत देंगे ।

सरकार को दो बातें समझ में आ गई है । एक यह कि किसान लंबा आंदोलन चलाने में सक्षम है ,तैयार हैं परंतु पीछे हटने वाले नहीं हैं ।उधर किसानों की समझ में भी आ गया है कि सरकार भीत और खोद के बीच में आ खड़ी हुई है। शायद किंकर्तव्यविमूढ़ भी है और इसका कारण पूंजीपतियों और प्रभावशाली लोगों का दबाव है जो अब सरकार को पुनर्विचार करने का मौका भी नहीं दे रहे हैं। पूंजीपति अरबों खरबों का निवेश कर चुके हैं इंफ्रास्ट्रक्चर स्थापित कर चुके हैं और वे भी पीछे हटने को तैयार नहीं है। सरकार उन पर दबाव देगी तो वह सरकार से सारा मुआवजा मांगेंगे ।

कहने को सरकार के बहुत से सूत्रधारो के हाथ कोल्हू में चढ़े हुए हैं । वह हाथ नहीं हिला सकते पैर पटक सकते हैं और पैर पटकने से किसान मानने वाले नहीं हैं इसलिए आने वाले समय में हालात और भी चिंताजनक इसलिए हो सकते हैं कि किसानों ने 26 जनवरी तक के कार्यक्रम तय कर दिए हैं ।

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