यदि चुनाव में भीड़ ही हार जीत का आंकलन करती है तो प्रदेश में हर बार देवीलाल परिवार सरकार बनाता

भारत सारथी/ ऋषिप्रकाश कौशिक

कांग्रेस में अपनी मनमर्जी की टिकट दिलवाकर प्रदेश में अपना वर्चस्व कायम कर प्रदेश की सभी सीटों पर जीत की बड़ी जिम्मेदारी ले रहे पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिहं हुड्डा इस चुनाव में भारी भूल करते नजर आ रहे है। वो अपना चुनाव अलग अलग हलकों में विधान सभा की टिकट चाहने वाले लोगों द्वारा लाई गई भीड़ को ही आधार मानकर अपनी जीत निश्चित मान रहे है लेकिन ये विधान सभा में टिकट मांगने वाले लोगों द्वारा लाई गई भीड़ को वोट में परिवर्तन करवाने की क्षमता रखते है या नही यही यक्ष प्रश्र है।

भीड़ के बारे में बात करे तो भीड़ से जहां नेता खुद पर गौरव महसूस करते हैं वहीं प्रतिद्वंदी को अपनी ताकत और जनसमर्थन का अहसास कराया जाता है। तत्काल यही भीड़ जीत-हार का आकलन करने वालों के लिये पैमाना होता है। किसी भी राजनीतिक सभा के लिये पूरी प्लानिग की जाती है। इलाके के लोगों का जमावड़ा हो इसके लिये अपने गांव मुहल्लों में पकड़ रखने वाले लोगों से सेटिग की जाती है। उनके आवागमन की व्यवस्था, भोजन-के साथ उनके शायं के शौक की व्यवस्था की जाती है। भीड़ का हिस्सा ऐसा भी तबका होता है जिसे इन सुविधाओं के अलावा अपनी दिहाड़ी भी चाहिये। उन्हें नेता जी के संबोधन से कोई लेना देना नहीं होता। वे तो नित्य किसी की सभा में आया जाया करते हैं।

भले ही आयोग के चाबुक कड़े हों लेकिन प्रत्याशी और पार्टियां तो अपना जुगाड़ कर ही ले रही है। नामांकन के दौरान ऐसा बहुत कुछ देखने को मिला। जात और जमात में पकड़ रखने वालों की खातिरदारी की गई थी। उन्हें जवाबदेही सौंपी गई थी कि अधिक से अधिक लोग नामांकन के दौरान जुटे ताकि सामने वालों को अपनी ताकत का एहसास हो सके। प्रत्याशियों की सभा में भीड़ हो इसके लिए संसाधन भी उपलब्ध कराये गये। मतदाताओं को अपने पक्ष में रिझाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाने लगे हैं।

एक समय था जब किसी दल या नेता की रैलियों में जुटने वाली भीड़ से अंदाजा लगा लिया जाता था कि किस दल का पलड़ा हल्का या भारी है। इसके पीछे की मुख्य वजह यही थी कि तब मतदाता या जनता अपनी मर्जी से अपने चहेते नेताओं के भाषण सुनने और उसे देखने आया करते थे। राजनैतिक रैलियों में जुट रही भीड़ से इस बात का अंदाजा नहीं लगाना चाहिए कि मतदाता का रूख किधर जा रहा है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब सभी दलों की रैलियों में भीड़ दिखाई दे रही है।

ऐसा ही नजारा 2019 के लोकसभा चुनाव के समय भी देखने को मिला था जब भूपेंद्र सिंह हुड्डा स्वयं सोनीपत से लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे तो उनसे बड़ा हजूम किसी के पास नही था लेकिन उनकी पौने दो लाख वोटों से बड़ी हार ने उनकी पोल खोल दी कि महज भीड़ के सहारे चुनाव नही जीते जा सकते। यदि बड़े स्तर पर बात की जाये तो मायावती जैसी रैलियों का नजारा कहीं और नहीं सिर्फ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रैली में देखने को मिलता है। इसलिए किसी की रैली में उमड़ी भीड़ के आधार पर किसी पार्टी या नेता की जीत का दावा करना गलत है। यदि प्रदेश की बात करे तो प्रदेश में देवीलाल परिवार ही सबसे बड़ी रैली करने का मादा रखता है। ज्ञात हो चौधरी देवीलाल के जन्मदिन पर एक दिन ही जजपा और इनैलो ने राजस्थान और हरियाणा में बड़ी सफल रैली करके यह बताने का संदेश दिया कि आज भी जनता देवीलाल परिवार के समर्थन में खड़ी है लेकिन राजस्थान में बहुत बड़ी सफल रैली करने के बाद भी जजपा अपनी किसी भी सीट पर जमानत नही बचा पाई।

वैसा ही कुछ भ्रम प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी अपनी जन सभा और रैलियों में आने वाली इस मैनेज भीड़ को लेकर पाल रहे है। जहां पूर्व मुख्यमंत्री अपने समर्थकों द्वारा लाई गई इस भीड़ के सहारे किनारे पर पहुंचना चाह रहे है वहीं भाजपा अपने माइक्रो मैनेजमैंट के तहत हर बुथ तक अपना संगठन बनाकर अपने कार्यकाल के विकास और सबका साथ सबका विकास की बात कर रही है। वहीं कांग्रेस के कुछ गांव व ब्लाक स्तर पर हुड्डा के कार्यकाल में फायदा उठा चुके ठेकेदारों की नाराजगी भी इस आने वाली भीड़ पर भारी पडऩे वाली है।

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