मोदी बीजेपी में रहना है तो झूठ को पप्पा कहना होगा
गडकरी शुद्ध संघी हैं लेकिन सच कह बैठे तो मोदी शाह ने उन्हें भी ठिकाने लगा दिया
इस बार संसदीय बोर्ड के पुनर्गठन में कई नियम टूट गए
इस बार परंपराओं को दरकिनार करके सदस्यों को हटाया गया है या उन्हें जगह नहीं दी गई
2024 के लोकसभा चुनावों की तैयारी के सिलसिले में बड़े बदलावों के दौर से गुजर रही है?

अशोक कुमार कौशिक 

भारतीय जनता पार्टी 2024 के लोकसभा चुनावों की तैयारी के सिलसिले में बड़े बदलावों के दौर से गुजर रही है। इस बीच जो गलतियाँ हुई हैं, उन्हें सुधारने की कोशिश भी कर रही है। कईयों के पर कुतरे जा रहे हैं, तो कई जगह पर संतुलन बनाने के लिए कांग्रेस जैसी नीति अपना कर एक साथ कई नेताओं को लॉलीपाप भी दी जा रही है।

यह सारी रणनीति मोदी, अमित शाह और जे.पी. नड्डा के स्तर पर हो रही है। पार्टी के संगठनात्मक ढर्रे में बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है। 

भाजपा संसदीय बोर्ड के पुनर्गठन के बाद इसका ढांचा पूरी तरह से बदला हुआ है। इसमें शामिल किए गए नए लोगों के नाम चौंकाने वाले हैं लेकिन उससे ज्यादा इसके संरचनात्मक ढांचे को लेकर जो बदलाव हुआ है वह बहुत हैरान है। इस बार संसदीय बोर्ड के पुनर्गठन में कई नियम टूट गए हैं। हालांकि ये नियम पार्टी के संविधान में दर्ज नहीं हैं लेकिन परपंरा से कई चीजें चली आ रही थीं। इस बार उन परंपराओं को दरकिनार करके सदस्यों को हटाया गया है या उन्हें जगह नहीं दी गई है। संसदीय बोर्ड के गठन में कुछ परंपराओं का पालन अनिवार्य रूप से होता था।

जैसे पार्टी का अध्यक्ष संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष होगा। पार्टी के सारे पूर्व अध्यक्ष संसदीय बोर्ड के सदस्य होंगे। अगर पार्टी सत्ता में है और पार्टी अध्यक्ष ही प्रधानमंत्री नहीं हैं तो प्रधानमंत्री भी इस बोर्ड के सदस्य होंगे। इसी तरह संसद के दोनों सदनों में पार्टी के नेता संसदीय बोर्ड के सदस्य होंगे। पार्टी का संगठन महामंत्री इस बोर्ड का पदेन सदस्य होगा। और संगठन महामंत्री से अलग एक महासचिव होगा, जो संसदीय बोर्ड का सदस्य सचिव होगा। इस बार इनमें से कई परंपराएं टूट गई हैं। इससे पहले जो बोर्ड था उसमें राज्यसभा में सदन के तत्कालीन नेता थावरचंद गहलोत सदस्य थे। गहलोत जब राज्यपाल बन गए तो उनकी जगह खाली हो गई। उनकी जगह पीयूष गोयल को राज्यसभा में नेता बनाया गया। पिछले दिनों वे फिर से राज्यसभा में चुन कर आए तो उनको दोबारा नेता बनाया गया। उम्मीद की जा रही थी कि उच्च सदन के नेता के नाते उनको संसदीय बोर्ड में जगह मिलेगी लेकिन उनको नहीं रखा गया। 

लोकसभा में पार्टी के नेता खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। प्रधानमंत्री और नेता सदन के नाते वे संसदीय बोर्ड में हैं। परंतु राज्यसभा का नेता संसदीय बोर्ड में नहीं है। इसी तरह पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्षों के बोर्ड का सदस्य होने की परंपरा रही है। इसी परंपरा की वजह से उप राष्ट्रपति बनने से पहले वेंकैया नायडू बोर्ड के सदस्य थे। यह परंपरा भी इस बार टूट गई है। भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को संसदीय बोर्ड से बाहर कर दिया गया। दो पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह और अमित शाह बोर्ड में हैं पर गडकरी को नहीं रखा गया। एक परंपरा संगठन महामंत्री से अलग एक महामंत्री को रखने की थी, जो बोर्ड का सदस्य सचिव होता था। अनंत कुमार ने यह भूमिका काफी समय तक निभाई थी। इस बार अलग से सदस्य सचिव नहीं रखा गया है। माना जा रहा है कि पदेन सदस्य के तौर पर बोर्ड में शामिल संगठन महामंत्री ही यह भूमिका निभाएंगे।

मेरे विचार से वर्तमान में भारत सरकार और बीजेपी सरकार में सबसे ईमानदार मंत्री नितिन गडकरी को संसदीय बोर्ड से बाहर का रास्ता दिखाना इससे क्या साबित किया जा रहा है ?

हाल ही में नितिन गडकरी जी का  दो बयान दिए थे जिसमें गांधी नेहरू की तारीफ करते हुए कहा था कि तब राजनीति सेवा थी लोगों के लिए राजनीति किया जाता था अब राजनीति सिर्फ सत्ता हासिल करने के लिए हो रही है सारी लड़ाई सत्ता हथियाने की हो रही है मेरा तो मन करता है कि राजनीति से सन्यास ले लूं। उनको बाहर का रास्ता दिखाने का एक कारण उधव ठाकरे भी है जिनसे उनके प्रगाढ़ दोस्ती है।

अभी से 4 महीने पहले बीजेपी संसदीय बोर्ड की बैठक में साहेब को एक मंत्री ने धमकी दिया था की 150 से ज्यादा सांसद हमारे संपर्क में हैं चाहूं तो पार्टी तोड़ दूं, लेकिन विचारधारा से मजबूर हूं , ऐसी खबरें मीडिया के सूत्रों के हवाले से आई थी लेकिन उस मंत्री जी का नाम सामने नहीं आ पाया था, क्या वह मंत्री नितिन गडकरी थे ? 

बीच-बीच में बहुत सारे मुद्दों पर वह अपनी ही सरकार के मंत्रियों से सवाल करते  हैं जैसे क्यों हम कोयला विदेश से खरीद रहे हैं ? क्यों हम आइसक्रीम खाने वाला चम्मच भी चाइना से खरीद रहे हैं? हम लिखने के लिए पेंसिल की लकड़ी और कागज भी विदेश से मंगवा रहे हैं जैसे प्रश्न वह खुद के ही सरकार के मंत्री से अक्सर क्या करते हैं ।

यह बात तो सबको पता है कि नितिन गडकरी मोहन भागवत के करीबी हैं और यह बात भी तय है कि नितिन गडकरी से बीजेपी को कोई खतरा नहीं है लेकिन मोदी यह भी तो नहीं चाहता है ना कि मोदी जी अच्छा कर रहे हैं कि बजाय लोग यह बोलने लगे कि नितिन गडकरी बहुत अच्छा कर रहे हैं। 

उत्तराखंड में अभी हाल ही में क्षेत्रीय संतुलन बनाने के लिए मैदानी इलाके के मदन कौशिक की जगह गढ़वाल के महेंद्र भट्ट को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। अब अध्यक्ष ब्राह्मण और मुख्यमंत्री ठाकुर के साथ कुमाऊँ और गढ़वाल का संतुलन भी बन गया है, जो राज्य की परंपरा रही है।

इसी तरह कर्नाटक में बोम्मई से कार्यकर्ताओं की बढ़ती नाराजगी को देखते हुए येद्दियुरप्पा को संसदीय बोर्ड में लाया गया है। राजस्थान में उपेक्षित नेताओं को फिर से सक्रिय होने के संकेत दे दिए गए हैं, जो अब तक की नीति में बदलाव के संकेत हैं। इससे पहले जनसंघ के समय और बाद में भाजपा के समय में भी संगठन से जुड़े फैसले मोटे तौर पर केंद्र और राज्यों के संगठन महामंत्रियों की सलाह से लिए जाते थे। अलबत्ता राष्ट्रीय और प्रदेश अध्यक्ष संगठन महामंत्रियों की ओर से लिए गए फैसलों पर मोहर लगाने का काम करते थे। संघ से आए संगठन महामंत्री की भूमिका अहम होती थी, इसलिए संगठन की दृष्टी से लिए जाने वाले फैसलों में गलती नहीं होती थी।

चुनाव में टिकट बंटवारे के समय भी संगठन महामंत्रियों की सलाह अहमियत रखती थी, क्योंकि वे निर्वाचन क्षेत्र के सामाजिक गुणा भाग और कार्यकर्ताओं के फीडबैक के आधार पर सिफारिश करते थे। हालांकि उन की सिफारिश अंतिम नहीं होती थी, लेकिन टिकट का फैसला करते समय उसे ध्यान में रखा जाता था।

भाजपा ने ऐसी प्रणाली दो कारणों से बना रखी थी। पहला कारण था कि दल बदल कर भाजपा में आने वालों को संगठन में अहम पद न दिए जाएं। क्योंकि उनके कभी भी वापस चले जाने का डर बना रहता है, और ऐसा होने पर उसका असर संगठन पर न पड़े। दूसरा, यह प्रणाली संगठन और चुनावी राजनीति में अंतर करने के लिए बना रखी थी। चुनावी राजनीति में कई समझौते करने पड़ते हैं, उस का संगठन पर असर न पड़े। लेकिन अब सब कुछ गड्डमड्ड हो गया है। दलबदल करके भाजपा में आने वालों को संगठन में अहम जिम्मेदारियां दी जा रही हैं और तुरंत पार्टी का उपाध्यक्ष और महामंत्री तक बनाया जा रहा है। दिलीप घोष इसका ताज़ा उदाहरण हैं, वह तृणमूल कांग्रेस से आकर भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बन गए थे और उपाध्यक्ष रहते हुए ही वापस तृणमूल कांग्रेस में चले गए। इसी तरह बीजू जनता दल से आए बिजयंत पांडा भी सीधे राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिए गए, एनटीआर की बेटी पुरंदेश्वरी देवी राष्ट्रीय महामंत्री बना दी गई।

संगठन महामंत्रियों का काम ऊपर से लिए गए फैसलों पर अमल करवाना भर रह गया है। जब से भाजपा कार्यकर्ता आधारित पार्टी न रह कर चुनाव प्रबंधन कंपनियों पर आधारित पार्टी बन गई है, तब से जिस भूमिका के लिए संघ अपने कर्तव्यनिष्ठ पूर्णकालिक कार्यकर्ता देता था और जिस उद्देश्य के लिए भाजपा पूर्णकालिक कार्यकर्ता लेता था, वह कार्य अब लगभग खत्म हो गया है। भाजपा ने उन्हें दूसरे दायित्व देना शुरू कर दिया है।

सितंबर 2020 में जे. पी. नड्डा ने अपनी टीम घोषित की थी, तो उसमें संघ के पूर्णकालिक सौदान सिंह और वी. सतीश पहले की तरह सह-संगठन महामंत्री थे, लेकिन तीन महीने बाद दिसंबर में सौदान सिंह को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और वी. सतीश को संगठक का नया पद सृजित करके दिल्ली कार्यालय में बिठा दिया गया। वी.सतीश के अलावा हृदयनाथ सिंह, श्री प्रधुम्न और प्रशांत अरोड़ा को भी संगठक बनाया गया है। सौदान सिंह और वी. सतीश को हटाए जाने के बाद भाजपा सह-संगठन महामंत्री का पद खत्म करने जा रही है। अब सिर्फ शिव प्रकाश ही एकमात्र सह-संगठन महामंत्री रह गए हैं। उन का मुख्यालय भी लखनऊ से बदल कर मुम्बई कर दिया गया है।

ऊपर से देखने में ऐसा लगता है कि संघ से आए पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं के दिन लद गए, लेकिन ऐसा नहीं है। पार्टी संगठनात्मक दृष्टी से बदलाव के दौर से गुजर रही है। भाजपा के संगठन में भारी बदलाव हो रहा है। जिस तरह संघ में क्षेत्रीय कार्यवाह होते हैं, उसी तरह भाजपा में भी क्षेत्रीय संगठन महामंत्री बनाए जाने की प्रक्रिया शुरू हुई है। जैसे असम से तबादला करके पिछले दिनों अजय जामवाल को मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ का संगठन महामंत्री बनाया गया है।

इसी तरह उत्तर प्रदेश के संगठन महामंत्री सुनील बंसल पूर्णकालिक थे, लेकिन उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय महामंत्री बना कर पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और तेलंगाना का प्रभारी बनाया गया है। सौदान सिंह, वी. सतीश की तरह सुनील बंसल भी अभी पूर्ण कालिक संघ के कार्यकर्ता हैं या नहीं, यह साफ़ नहीं है। आने वाले दिनों में देश भर में संघ की तरह भाजपा के क्षेत्रीय संगठन महामंत्री बनाए जाने के संकेत हैं।

नितिन गडकरी को संसदीय बोर्ड में शामिल ना करना क्या साहेब का बीजेपी नेताओं के लिए सबक है कि जो भी जवान खोलेगा उसका हाल भी यही किया जाएगा। गड़करी, आडवाणी, मुरली मनोहर या तौगड़िया की तुलना में तुम्हारी संघी औकात दो कौड़ी की भी‌ नहीं तो मोदी शाह संघ मौका पड़ने तुम्हारी धोती कहां तक उठाएगा।

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