ऐलनाबाद उपचुनाव का बिगुल बज चुका है, भारत सारथी इस उपचुनाव के लिए एक विशेष श्रृंखला का आयोजन कर रहा है। इस श्रृंखला में भारत सारथी के पाठकों को इस उपचुनाव और हरियाणा की भूतकाल और वर्तमान राजनीति से सम्बंधित रोजाना बेहद रोचक जानकारियां मिलेंगी।

हरियाणा में जनांदोलनों के पक्ष में इस्तीफों की पृष्ठभूमि

अमित नेहरा

चौधरी रिजकराम दहिया, शायद आज की युवा पीढ़ी इस नेता के नाम से अपरिचित है। इसमें युवा पीढ़ी का भी कसूर नहीं है, दरअसल कुछ नायक ऐसे होते हैं जो बड़े नामों तले दब जाते हैं और उनके त्याग को भुला दिया जाता है। चौधरी रिजकराम दहिया भी इसी कैटेगरी में आते हैं।

1912 में सोनीपत के बढ़खालसा गाँव में जन्मे रिजकराम दहिया ने संयुक्त पंजाब में पाई विधानसभा क्षेत्र से पहला इलेक्शन 1952 में लड़ा था,1962 में वे पाई से जीत गए और 1964 से 1966 तक संयुक्त पंजाब के सिंचाई व ऊर्जा मंत्री रहे। हरियाणा राज्य के गठन के पश्चात वे भगवतदयाल शर्मा के मंत्रिमंडल में भी मंत्री रहे लेकिन मतभेदों के चलते उन्होंने मंत्रीपद छोड़ दिया। वे 1967, 1972 और 1977 में पाई से ही विधायक बने। रिजकराम दहिया भजनलाल मंत्रिमंडल में सिंचाई और ऊर्जा मंत्री रहे। इसके बाद उन्होंने 1983 में सोनीपत लोकसभा उपचुनाव में दिग्गज नेता चौधरी देवीलाल को हराया।

आप सोचेंगे कि ये सब लिखने का ऐलनाबाद उपचुनाव से क्या सम्बंध है? सम्बंध है बिल्कुल सम्बंध है। दरअसल रिजकराम दहिया कांग्रेसी नेता थे और कांग्रेस ने उन्हें 2 अगस्त 1968 को छह साल के लिए राज्यसभा सांसद बनाया था लेकिन गजब की बात देखिये कि रिजकराम ने 3 फरवरी 1970 को ही राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया।

रिजकराम ने राज्यसभा से इस्तीफा क्यों दिया? क्या कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें ऐसा करने का आदेश दिया था या मजबूर किया था। इसका उत्तर नहीं में है।

दरअसल उस दौरान केन्द्र सरकार ने निर्णय कर लिया था कि चंडीगढ़ को पंजाब के हवाले कर दिया जाए और हरियाणा अपनी नई राजधानी बना ले। इसके लिए केन्द्र सरकार ने हरियाणा सरकार को 30 करोड़ रुपए भी जारी कर दिए थे। पंजाब को चंडीगढ़ देने का हरियाणा में जबरदस्त विरोध हुआ और इस विरोध को अपना समर्थन देने के लिए रिजकराम ने अपनी राज्यसभा सांसद के पद से इस्तीफा दे दिया।

हरियाणा बनने के बाद ये पहली बार था कि किसी जनांदोलन को अपना समर्थन के लिए किसी बड़े जनप्रतिनिधि ने अपना इस्तीफा दिया। इसके बाद तो अनेक अवसर आये जब हरियाणा के जनप्रतिनिधियों ने इस तरह के मुद्दों पर इस्तीफा दिया हो।

ठीक इसी तरह राजीव-लोंगोवाल समझौते के विरोध में 14 अगस्त 1985 के न्याययुद्ध के चलते लोकदली नेता चौधरी देवीलाल ने महम और भाजपा के प्रदेश में तत्कालीन सबसे बड़े नेता डॉ. मंगलसेन ने रोहतक विधानसभा क्षेत्रों से इस्तीफा दिया था।

रोचक बात यह रही कि दोनों विधानसभा क्षेत्रों में 22 सितंबर 1985 को उपचुनाव हुए और चौधरी देवीलाल तो महम से दोबारा जीत गए मगर डॉ. मंगलसेन रोहतक विधानसभा से चुनाव हार गए!!!

कहने का लब्बोलुआब यह है कि हरियाणा में जनांदोलनों और मुद्दों पर सांसद और विधायक पदों से इस्तीफा देने की परंपरा रही है।

हास्यास्पद बात यह है कि अभय सिंह चौटाला द्वारा विधानसभा से दिए इस्तीफे को कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही नाटक करार दे रही हैं। अगर ये दोनों अपने गिरेबान में झाँक कर देखें तो क्या ये बता सकते हैं कि रिजकराम दहिया और डॉ. मंगलसेन के इस्तीफे नाटक थे?

राजनीति में स्वेच्छा से किसी आंदोलन में इस्तीफा देना बड़ी मजबूत इच्छाशक्ति का प्रतीक है। इस ब्रह्मास्त्र से व्यक्ति विधायक या सांसद से जननेता बनता है और विधायक व सांसद बनना आसान है लेकिन जननेता कोई विरला ही बनता है!!!

चलते-चलते
हरियाणा कांग्रेस के नेता 27 जनवरी 2021 से ही लगातार कह रहे हैं कि अभय सिंह चौटाला ने विधानसभा से इस्तीफा देकर गलती की है। कांग्रेसियों का तर्क है कि अभय सिंह चौटाला विधानसभा में रहकर सरकार को अच्छी तरह घेर सकते थे। अब यह देखना दिलचस्प रहेगा कि कांग्रेस फिर से अभय सिंह चौटाला द्वारा सरकार को घिरवाने का रास्ता देगी या फिर उनके खिलाफ उपचुनाव में अपना कैंडिडेट उतार कर अभय सिंह चौटाला द्वारा सरकार को घिरवाने के रास्ते में अड़ंगा डालेगी!!!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक, लेखक, समीक्षक और ब्लॉगर हैं)

क्रमशः

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