सिनेमा के शुरुआती दौर में दिवाली पर केंद्रित फिल्में बनती थीं, अब दृश्य या गीत तक सिमट गई है यह परंपरा
विजय गर्ग
दिवाली — रोशनी, उमंग और पारिवारिक एकता का पर्व — कभी हिंदी फिल्मों के कथानक का अहम हिस्सा हुआ करती थी। शुरुआती दौर में अनेक फिल्में दिवाली के इर्दगिर्द ही घूमती थीं, पर अब यह पर्व फिल्मों में केवल एक दृश्य, गीत या प्रतीकात्मक संदर्भ भर रह गया है। सिनेमा के बदलते रुझानों के साथ दिवाली पर्दे से धीरे-धीरे ओझल होती चली गई।
जब दिवाली थी फिल्मों का केंद्र
फिल्मों के शुरुआती दौर में दिवाली स्वयं कहानी का विषय हुआ करती थी। 1940 में जयंत देसाई के निर्देशन में बनी फिल्म ‘दिवाली’, 1955 की ‘घर घर में दिवाली’ और 1956 की ‘दिवाली की रात’ जैसी फिल्मों में यह पर्व कथा की आत्मा था। लेकिन सत्तर के दशक के बाद दिवाली का चित्रण फिल्मों में घटने लगा।
2001 में अमिताभ बच्चन की एबीसीएल कंपनी ने आमिर खान और रानी मुखर्जी को लेकर ‘हैप्पी दिवाली’ फिल्म की घोषणा की थी, पर यह फिल्म घोषणा से आगे नहीं बढ़ सकी।
संदर्भ के रूप में रह गई दिवाली
सत्तर के दशक से लेकर 2005 तक फिल्मकारों ने दिवाली को संदर्भ बिंदु के तौर पर ज़रूर अपनाया।
1972 की फिल्म ‘अनुराग’ में दिवाली का दृश्य भावनात्मक चरम पर है — जहां कैंसर पीड़ित बच्चे की अंतिम इच्छा पूरी करने को पूरा मोहल्ला दिवाली मनाता है।
कमल हासन की ‘चाची 420’ (1998) में बच्ची दिवाली के पटाखे से घायल होती है।
‘मोहब्बतें’ (2000) और ‘कभी खुशी कभी गम’ (2001) में दिवाली को मिलन और पारिवारिक बंधन के प्रतीक के रूप में पेश किया गया है।
कहानी से परे दिवाली के दृश्य
हाल के वर्षों में फिल्मों में दिवाली केवल सजावटी दृश्य बन गई है।
2007 की ‘तारे ज़मीन पर’ या 2010 की ‘आशा’ में दिवाली के दृश्य कहानी से सीधे तौर पर नहीं जुड़ते।
1999 की ‘वास्तव’ में संजय दत्त अपनी चॉल में दिवाली मनाने आता है, पर मां उसे यह कहकर भगा देती है कि वह गुंडे से संबंध नहीं रखना चाहती — एक सशक्त लेकिन असंगत संदर्भ।
कुछ यादगार दिवाली दृश्य
कुछ फिल्मों में दिवाली का चित्रण इतना प्रभावशाली हुआ कि दर्शक उसे भूल नहीं सके।
‘मोहब्बतें’ में गुरुकुल के अनुशासन के बीच अनधिकृत दिवाली कार्यक्रम बगावत और स्वतंत्रता का प्रतीक बनता है।
‘हम आपके हैं कौन’ में दिवाली का दृश्य पारिवारिक सौहार्द, उत्सव और संगीत के समन्वय का भावपूर्ण उदाहरण है।
वहीं ‘गोलमाल 3’ का दिवाली पटाखा सीन हास्य से भरपूर है — जिसमें पात्र अपनी ही दुकानों में पटाखे फोड़कर धंधा चौपट कर देते हैं।
गीतों में सजी दिवाली की झलक
दिवाली पर आधारित कुछ गीत आज भी अमर हैं।
गोविंदा, तब्बू और जूही चावला की ‘आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया’ का गीत “आई है दिवाली सुनो जी घरवाली” पूरे पड़ोस को एकजुट करने वाला जश्न बन जाता है।
लेकिन क्लासिक दौर के गीत — अमीरबाई कर्नाटकी का “घर घर में दिवाली है” (किस्मत, 1943) और शमशाद बेगम का “आई रे आई रे दिवाली” (शीश महल, 1949) — आज भी सबसे अधिक याद किए जाते हैं।
समय बदला, पर रोशनी की याद कायम
बदलते दौर में जब सिनेमा ग्लोबल विषयों और आधुनिक प्रयोगों की ओर बढ़ रहा है, दिवाली का पारंपरिक चित्रण फीका पड़ गया है।
फिर भी दर्शकों के दिलों में वे दृश्य और गीत आज भी टिमटिमाते दीपों की तरह रोशनी बिखेरते हैं — याद दिलाते हैं कि कभी भारतीय सिनेमा का हर फ्रेम ‘रोशनी के त्यौहार’ से जगमगाता था।








