काला धन : राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को भीतर से खोखला करने वाला विष

सुरेश गोयल ‘धूप वाला’, पूर्व जिला महामंत्री, भाजपा जिला हिसार

काला धन केवल अपराध नहीं, बल्कि राष्ट्र की आर्थिक ऊर्जा को भीतर ही भीतर जला देने वाला विष है। अब समय आ गया है कि राजनीति, कर प्रणाली और प्रशासन — तीनों में ऐसे सुधार हों, जो हर छिपे हुए धन को राष्ट्रनिर्माण की धारा में प्रवाहित कर दें।

राष्ट्र की अर्थव्यवस्था पर बोझ

देश में काले धन की समस्या केवल आर्थिक नहीं, बल्कि नैतिक और प्रशासनिक पतन का प्रतीक बन चुकी है। राजनीति, नौकरशाही और व्यापारिक जगत के गठजोड़ ने इस समानांतर अर्थव्यवस्था को वर्षों से पनपने दिया है। आज काला धन विकास, न्याय और पारदर्शिता — तीनों का सबसे बड़ा शत्रु बन चुका है। इसे खत्म करने के लिए छिटपुट नहीं, बल्कि दीर्घकालिक राष्ट्रीय रणनीति की आवश्यकता है।

कर सुधार और पारदर्शिता

काले धन की जड़ कर प्रणाली की जटिलता और ऊँचे कर बोझ में भी छिपी है। यदि सरकार आयकर में वाजिब छूट सीमा बढ़ाए और जीएसटी दरों को व्यवहारिक बनाए, तो नागरिक स्वेच्छा से कर अदा करेगा। नकद लेनदेन पर सख्त सीमा और डिजिटल भुगतान को बढ़ावा देने से आर्थिक पारदर्शिता में तेजी आएगी।

बेनामी संपत्ति पर निर्णायक प्रहार

भूमि, सोने-चांदी, हवाला और विदेशी मुद्रा के रूप में छिपाए गए धन पर रीयल-टाइम निगरानी प्रणाली की आवश्यकता है। वित्तीय संस्थानों को संदिग्ध लेनदेन की स्वचालित रिपोर्ट साझा करने की बाध्यता हो। साथ ही बेनामी संपत्ति कानून का कठोर पालन सुनिश्चित किया जाए।

राजनीतिक सुधार : पारदर्शिता की कुंजी

काले धन का सबसे बड़ा स्रोत चुनावी चंदा है। राजनीतिक दलों के चंदे और खर्च की पूर्ण पारदर्शिता हो, नकद दान पर रोक लगे, नियमित ऑडिट और जवाबदेही की व्यवस्था लागू की जाए। इससे राजनीति में स्वच्छता और जनविश्वास दोनों मजबूत होंगे।

विकास और आत्मनिर्भरता की दिशा में

यदि छिपा हुआ धन वैध अर्थव्यवस्था में लाया जाए और उसे उद्योग, ढाँचा व रोजगार सृजन में लगाया जाए, तो भारत के विकास का नया अध्याय लिखा जा सकता है। काले धन पर नियंत्रण केवल अपराध रोकने की नीति नहीं, बल्कि भारत की आर्थिक आत्मनिर्भरता और जनविश्वास को सशक्त करने का अभियान होना चाहिए।

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Author: Bharat Sarathi

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