जातिवाद, भ्रष्टाचार और अफसरशाही के बीच दम तोड़ती न्याय की उम्मीद
ऋषि प्रकाश कौशिक
हरियाणा में बीते एक सप्ताह के भीतर घटित दो पुलिस आत्महत्याओं ने सरकार के दावों और प्रशासनिक संवेदनशीलता की असलियत उजागर कर दी है।
“हरियाणा एक, हरियाणवी एक” और “बिना खर्ची-पर्ची की सरकार” जैसे नारे अब खुद सरकार से जवाब मांग रहे हैं — क्योंकि पुलिस विभाग के भीतर की जातिगत राजनीति, भ्रष्टाचार और अफसरशाही ने राज्य की व्यवस्था को गहरे संकट में डाल दिया है।
आईपीएस वाई. पूरण सिंह की आत्महत्या — प्रशासन के विवेक पर प्रश्नचिह्न
सबसे पहले मामला सामने आया वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी वाई. पूरण सिंह की आत्महत्या का।
उन्होंने अपने सुसाइड नोट में जातिगत भेदभाव और विभागीय उत्पीड़न के गंभीर आरोप लगाए और कई वरिष्ठ अधिकारियों पर कार्रवाई की मांग की थी। यह घटना उस समय हुई जब उनकी पत्नी, आईएएस अधिकारी अमनीत कौर, मुख्यमंत्री के साथ जापान दौरे पर थीं।
इस सनसनीखेज घटना ने पूरे प्रदेश को झकझोर दिया।
केंद्र और राज्य — दोनों स्तरों पर एससी वर्ग के मंत्रियों, विपक्षी नेताओं और सामाजिक संगठनों ने परिवार से मुलाकात कर न्यायिक जांच की मांग की।
परंतु अब तक किसी वरिष्ठ अधिकारी पर ठोस कार्रवाई न होना इस पूरे मामले पर गहरी छाया डालता है।
सूत्रों के अनुसार, कई महत्वपूर्ण निर्णय पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के करीबी अधिकारी राजेश खुल्लर की स्वीकृति पर निर्भर हैं।
मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी का यह बयान कि — “मेरे पास तो एक चपरासी तक का तबादला करने की ताकत नहीं” — इस पूरी सत्ता-संरचना की विडंबना को उजागर कर गया।
एएसआई संदीप की आत्महत्या — विवाद का दूसरा अध्याय
आईपीएस पूरण सिंह की आत्महत्या की गूंज अभी थमी भी नहीं थी कि रोहतक के एएसआई संदीप ने भी जान दे दी।
अपने अंतिम पत्र में उसने वाई. पूरण सिंह और उनकी पत्नी अमनीत कौर पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए।
इससे मामला और उलझ गया — प्रशासनिक गलियारों से लेकर राजनीतिक मंचों तक नई बयानबाजियों और आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला शुरू हो गया।
जाति, राजनीति और सत्ता की तिकड़ी
अब यह प्रकरण जातिगत और राजनीतिक रंग ले चुका है।
कुछ नेताओं ने इसे एससी-एसटी बनाम जाट का मुद्दा बना दिया, जबकि कुछ ने महर्षि वाल्मीकि की जातिगत व्याख्या कर नया विवाद खड़ा कर दिया।
स्पष्ट है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग अब भी सामाजिक विभाजन को एक ढाल की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, ताकि मूल सवाल — “जवाबदेही किसकी है?” — दबा दिया जाए।
सिस्टम की पोल और सियासी असर
हरियाणा में बढ़ता अफसरशाही का अहंकार, जातिवाद की पकड़ और राजनीतिक हस्तक्षेप — इन आत्महत्याओं के मूल कारणों में से हैं।
“बिना खर्ची-पर्ची की सरकार” का नारा अब खोखला प्रतीत हो रहा है, क्योंकि वास्तविकता यह है कि सत्ता की डोर अब भी खट्टर गुट के हाथों में नजर आती है और मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी केवल नाममात्र के मुखिया बनकर रह गए हैं।
शायद यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 17 अक्टूबर की हरियाणा रैली अचानक स्थगित कर दी गई और भाजपा का “चूल्हा न्योत कार्यक्रम” भी रद्द करना पड़ा।
इन राजनीतिक संकेतों ने स्पष्ट कर दिया है कि हरियाणा में हालात सामान्य नहीं हैं —
विश्वास की दीवार दरक चुकी है और जनता के मन में असंतोष गहराता जा रहा है।








