सुरेश गोयल ‘धूप वाला’
भारत की संस्कृति में मातृत्व को सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। यहाँ माँ को केवल जननी नहीं, बल्कि पालनहार, रक्षक और परिवार की जीवनरेखा के रूप में पूजनीय माना गया है। इसी मातृ भावना और संतानों की दीर्घ आयु की मंगल कामना से जुड़ा एक प्रमुख व्रत है — अहोई अष्टमी व्रत। यह व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है। देशभर में महिलाए अहोई माता का पूजन कर अपने पुत्रों की सुख-समृद्धि, आरोग्यता और दीर्घायु की प्रार्थना करती हैं ।अहोई अष्टमी को “संतान सुख का पर्व” कहा जाता है। इस दिन विवाहित स्त्रियाँ प्रातःकाल स्नान कर निर्जला व्रत का संकल्प लेती हैं और सायंकाल तारों के दर्शन के पश्चात अहोई माता की कथा सुनकर पूजा करती हैं। इस व्रत की विशेषता यह है कि इसे विशेष रूप से संतान की रक्षा और उन्नति के लिए किया जाता है। जिन स्त्रियों के संतान नहीं होती, वे भी संतान प्राप्ति की कामना से यह व्रत रखती हैं।
व्रत की कथा और प्रतीकात्मकता
लोक परंपरा के अनुसार, एक बार एक साहूकार की पत्नी दीपावली से पूर्व मिट्टी खोदने जंगल गई। अनजाने में उसके फावड़े से एक सेह (साही) के बच्चे की मृत्यु हो गई। उस पाप के कारण उसकी संतानें काल-कवलित हो गईं। दुःख से व्याकुल होकर वह महिला भगवान से प्रार्थना करने लगी। तब देववाणी हुई कि यदि वह हर वर्ष कार्तिक कृष्ण अष्टमी को सायंकाल अहोई माता की पूजा कर अपने अपराध के लिए क्षमा मांगे, तो उसकी संतानें सुरक्षित रहेंगी। उसने श्रद्धा से व्रत किया, और उसके घर में पुनः सुख-शांति लौट आई। तभी से यह परंपरा चल पड़ी।
यह कथा केवल एक धार्मिक आख्यान नहीं है, बल्कि यह कर्तव्य, प्रायश्चित और मातृत्व की करुणा का प्रतीक है। इसमें यह संदेश निहित है कि जीवन में जब भी भूल हो, तो सच्चे मन से प्रायश्चित और ईश्वर के प्रति समर्पण से पुनः शुभता प्राप्त की जा सकती है।
पूजन विधि और परंपराएँ
अहोई माता की पूजा दीवार या पूजा स्थल पर चित्र बनाकर या कैलेंडर रूप में अहोई माता का चित्र स्थापित कर की जाती है। उसमें सात छेदों वाली साही (सेह), उसके बच्चे और पास में सिंदूर, चावल, जल और फल अर्पित किए जाते हैं। पूजा के समय “अहोई माता की आरती और कथा” का पाठ किया जाता है। कुछ स्थानों पर महिलाएँ सुई-धागे से अहोई माता का चित्र कढ़ाई के रूप में बनाकर अगले वर्ष तक सुरक्षित रखती हैं।
सायंकाल जब तारे निकलते हैं, तब महिलाएँ अहोई तारा देखकर जल ग्रहण करती हैं और अपने बच्चों को आशीर्वाद देती हैं। यह दृश्य पूरे समाज में मातृ स्नेह और आस्था का अनोखा संगम प्रस्तुत करता है।
सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व
अहोई अष्टमी व्रत केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह भारतीय परिवार व्यवस्था की सुदृढ़ नींव का प्रतीक भी है। यह व्रत माँ की त्यागमयी भावना, परिवार के प्रति निष्ठा और पीढ़ियों की एकता को दर्शाता है। आधुनिक युग में भी जब समाज में जीवनशैली और विचारों में बदलाव आया है, तब भी यह व्रत भारतीय नारी की आस्था और पारिवारिक समर्पण को जीवित रखे हुए है।
ग्रामीण से लेकर शहरी क्षेत्रों तक, महिलाएँ एक साथ बैठकर कथा सुनती हैं, गीत गाती हैं और सामूहिक आराधना करती हैं। इससे सामाजिक एकता और महिला सहभागिता को भी बल मिलता है। यह व्रत माँ की शक्ति का उत्सव है — जो सृष्टि को जन्म देती है और उसकी रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहती है।
अहोई अष्टमी व्रत भारतीय संस्कृति में मातृत्व की उस पवित्रता का प्रतीक है, जो अपने बच्चों के सुख के लिए स्वयं की इच्छाओं का त्याग करती है। यह पर्व नारी की शक्ति, त्याग और करुणा का उत्सव है। जब माँ अपने संकल्प और आस्था से संतान के लिए व्रत रखती है, तो यह केवल पूजा नहीं, बल्कि मातृत्व की परम साधना बन जाती है।
सच्चे अर्थों में अहोई अष्टमी यह संदेश देती है कि “माँ की ममता ही जीवन की सबसे बड़ी शक्ति है” — और यही भारतीय संस्कृति की सबसे अनमोल धरोहर भी।








