बोध राज गम्भीर
लक्ष्मी गार्डन, गुडगाँव

मेरा जन्म पाकिस्तान जो 1947 से पहले हिंदुस्तान था, मैं दौलतवाला गाँव में 12.03.1936 में हुआ था | मेरा पालन-पोषण दौलत वाला में हुआ था, जो वोहवा शहर से तक़रीबन 6 मील पर था | मेरे पिताजी और दो बड़े भाई किराना की दुकान करते थे | मैं उस समय 11 साल का था और छठी क्लास में पढ़ता था | हम पांच भाई थे | मैं चौथी क्लास तक दौलत वाला गाँव में पढ़ा हूँ और छठी क्लास वोहवा शहर में पढ़ा था | मैं अपने भाईयों का हाथ बाँटने के लिए वोहवा से दुकान का सामान घोड़े पर बैठकर अकेला लाता था | स्कूल में उर्दू पढ़ाई जाती थी | वहाँ पर पक्की सड़कें नहीं होती थी | कच्चा रास्ता होता था | रस्ते में किसान लोग खेतों में काम करते रहते थे | ज्यादातर वो लोग किसान होते थे और सज्जन आदमी थे | हमारे गाँव में और शहर मर बेर के पद और खजूर के बहुत पेड़ थे | मैं खजूर के पेड़ पर चढ़कर खजूर उतारा करता था | वोहवा शहर में एक बहुत बड़ा गौसाई नाम का मंदिर था और भी कई मंदिर थे | हमारे मंदिर का बड़ा पुजारी पंडित जुगलदास जी था जो बाद में विभाजन के बाद गुड़गाँव में आ गया था | हमारे शहर में गंग नाम की पानी की नहर बहती थी जिसका पानी साफ और स्वच्छ होता था | हमारा स्कूल शहर के बाहर था और दशहरे का त्यौहार भी शहर के बाहर भी मनाया जाता था | लोग बड़े चाव से त्यौहार मनाते थे | बिजली आदि नहीं हुआ करती थी | पढ़ाई के समय सरसों की तेल की दिया जलाकर पढ़ा जाता था | घरों में लालटेन में मिट्टी का तेल प्रयोग होता था |

जब देश आज़ाद हुआ | बस से पहले डेरा गाजी खान में लाया गया उसके बाद बसों में मुजफ्फरगढ़ और फिर ट्रेनों से इंडिया, फिर जालंधर, फिर सोनीपत और फिर गुड़गाँव में लाया गया | जब ट्रेन अटारी स्टेशन पहुंची, वहां के लोगों ने बहुत प्यार से और ख़ुशी से, स्वागत किया और खाना खिलाया और जय भारत के नारे लगाये |

हमारे शहर वोहवा में चारों तरफ कच्ची मिट्टी के बने हुए बंद दरवाज़ों वाली चौकियां होती थी | हिन्दू आबादी शहर के अन्दर होती थी | बाकी लोग शहर के बाहर रहते थे | लड़ाई के समय ऊपर चौबारे पर 2 फौज़ के सिपाही गन के साथ पहरा देते थे | शहर और गाँव में दूध-दही की कोई कमी नहीं थी | दूध बेचा नहीं जाता था | हर घर में गाय होती थी | बासी रोटी मक्खन के गोले के साथ खाई जाती थी, बड़ा स्वाद आता था |

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